रविवार, 25 जुलाई 2010

भारतीय प्रेस परिषद (Press Council of India ; PCI)

एक संविघिक स्वायत्तशासी संगठन है जो प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा करने व उसे बनाए रखने, जन अभिरूचि का उच्च मानक सुनिश्चित करने से और नागरिकों के अघिकारों व दायित्वों के प्रति उचित भावना उत्पन्न करने का दायित्व निबाहता है। सर्वप्रथम इसकी स्थापना ४ जुलाई, सन् १९६६ को हुई थी।
अध्यक्ष परिषद का प्रमुख होता है जिसे राज्यसभा के सभापति, लोकसभा अघ्यक्ष और प्रेस परिषद के सदस्यों में चुना गया एक व्यक्ति मिलकर नामजद करते हैं। परिषद के अघिकांश सदस्य पत्रकार बिरादरी से होते हैं लेकिन इनमें से तीन सदस्य विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, बार कांउसिल आफ इंडिया और साहित्य अकादमी से जुड़े होते हैं तथा पांच सदस्य राज्यसभा व लोकसभा से नामजद किए जाते हैं - राज्य सभा से दो और लोकसभा से तीन।
प्रेस परिषद, प्रेस से प्राप्त या प्रेस के विरूद्ध प्राप्त शिकायतों पर विचार करती है। परिषद को सरकार सहित किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकती है या भर्त्सना कर सकती है या निंदा कर सकती है या किसी सम्पादक या पत्रकार के आचरण को गलत ठहरा सकती है। परिषद के निर्णय को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
काफी मात्रा में सरकार से घन प्राप्त करने के बावजूद इस परिषद को काम करने की पूरी स्वतंत्रता है तथा इसके संविघिक दायित्वों के निर्वहन पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है।
इतिहास
सन् १९५४ में प्रथम प्रेस आयोग ने प्रेस परिषद् की स्थापना की अनुशंशा की।
पहली बार ४ जुलाई, सन् १९६६ को स्थापित
सन् ०१ जनवरी, १९७६ को आन्तरिक आपातकाल के समय भंग
सन् १९७८ में नया प्रेस परिषद अधिनियम लागू
सन् १९७९ में नए सिरे से स्थापित
प्रेस परिषद् अधिनियम, १९७८
प्रेस परिषद् की शक्तियाँ निम्नानुसार अधिनियम की धारा 14 और 15 में दी गई हैं ।

परिषद् की निधि
अधिनियम में दिया गया है कि परि­षद, अधिनियम में अंतर्गत अपने कार्य करने के उद्देश्य से, पंजीकृत समाचारत्रों और समाचार एजेंसियों से निर्दि­ट दरों पर उद्ग्रहण शुल्क ले सकती है। इसके अतिरिक्त, केन्द्रीय सरकार, द्वारा परिषद् को अपने कार्य करने के लिये, इसे धन, जैसाकि केन्द्रीय सरकार आवश्यक समझे, देने का व्यादेश दिया गया है।

परिषद् की शक्तियाँ
परिनिंदा करने की शक्ति
14, 1 जहाँ परिषद् को, उससे किए गए परिवाद के प्राप्त होने पर या अन्यथा, यह विश्वास करने का कारण हो कि किसी समाचारपत्र या सामाचार एजेंसी ने पत्रकारिक सदाचार या लोक-रूचि के स्तर का अतिवर्तन किया है या किसी सम्पादक या श्रमजीवी पत्रकार ने कोई वृत्तिक अवचार किया है, वहां परिषद् सम्बद्ध समाचारत्र या समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को सुनवाई का अवसर देने के पश्चात उस रीति से जाँच कर सकेगी जो इस अधिनियम के अधीन बनाए गये विनियमों द्वारा उपबन्धित हो और यदि उसका समाधान हो जाता है कि ऐसा करना आवश्यक है तो वह ऐसे कारणों से जो लेखवद्ध किये जायेंगे, यथास्थिति उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार को चेतावनी दे सकेगी, उसकी भर्त्सना कर सकेगी या उसकी परिनिंदा कर सकेगी या उस संपादक या पत्रकार के आचरण का अनुमोदन कर सकेगी, परंतु यदि अध्यक्ष की राम में जाँच करने के लिए कोई पर्याप्त आधार नहीं है तो परिषद् किसी परिवाद का संज्ञान नहीं कर सकेगी।

2, यदि परिषद् की यह राय है कि लोकहित् में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो वह किसी समाचारपत्र से यह अपेक्षा कर सकेगी कि वह समाचारपत्र या समाचार एजेंसी, संपादक या उसमें कार्य करने वाले पत्रकार के विरूद्ध इस धारा के अधीन किसी जाँच से संबंधित किन्हीं विशि­टयों को, जिनके अंतर्गत उस समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, सम्पादक या पत्रकार का नाम भी है उसमें ऐसी नीति से जैसा परिषद् ठीक समझे प्रकाशित करे।

3, उपधारा 1, की किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह परिषद् को किसी ऐसे मामले में जाँच करने की शक्ति प्रदान करती है जिसके बारे में कोई कार्रवाई किसी न्यायालय में लम्बित हो।

4, यथास्थिति उपधारा 1, या उपधारा 2, के अधीन परिषद् का विनिश्चय अंतिम होगा और उसे किसी भी न्यायालय में प्रश्नगत नहीं किया जायेगा।

परिषद् की साधारण शक्तियाँ
5, इस अधिनियम के अधीन अपने कृत्यों के पालन या कोई जाँच करने के प्रयोजन के लिए परिषद् को निम्नलिखित बातों के बारे में संपूर्ण भारत में वे ही शक्तियाँ होंगी जो वाद का विचारण करते समय

1908 का 5, सिविल न्यायालय में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अधीन निहित हैं, अर्थात-

क, व्यक्तियों को समन करना और हाजिर कराना तथा उनकी शपथ पर परीक्षा करना,

ख, दस्तावेजों का प्रकटीकरण और उनका निरीक्षण,

ग, साक्ष्य का शपथ कर लिया जाना,

घ, किसी न्यायालय का कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपियों की अध्यपेक्षा करना,

ड़, साक्षियों का दस्तावेज़ की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना,

च, कोई अन्य विषय जो विहित जाए।

2, उपधारा 1, की कोई बात किसी समाचारपत्र, समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार को उस समाचारपत्र द्वारा प्रकाशित या उस समाचार एजेंसी, संपादक या पत्रकार द्वारा प्राप्त रिपोर्ट किये गये किसी समाचार या सूचना का स्रोत प्रकट करने के लिए विवश करने वाली नहीं समझी जायेगी।

1860 का 45, 3, परिषद् द्वारा की गयी प्रत्येक जाँच भारतीय दंड संहिता की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझी जायेगी।

4, यदि परिषद् अपने उद्देश्यों को क्रियान्वित करने के प्रयोजन के लिए या अधिानियम के अधीन अपने कृत्यों का पालन करने के लिए आवश्यक समझती है तो वह अपने किसी विनिश्चय में या रिपोर्ट में किसी प्राधिकरण के, जिसके अन्तर्गत सरकार भी है, आचरण के संबंध में ऐसा मत प्रकट कर सकेगी जो वह ठीक समझे। शिक्षाविदों की विशि­ट मंडली द्वारा संवारा गया है। उच्चतम न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश न्यायामूर्ति श्री जे. आर. मधोलकर, पहले अध्यक्ष थे जिन्होंने 16 नवंबर, 1966 से 1 मार्च, 1968 तक परिषद् की अध्यक्षता की। इसके पश्चात न्यायामूर्ति श्री एन. राजगोपाला अय्यनगर 4 मई, 1968 से 1 जनवरी, 1976 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. ग्रोवर 3 अप्रैल, 1979 से 9 अक्टूबर, 1985 तक, न्यायामूर्ति श्री एन. एन. सेन 10 अक्टूबर, 1985 से 18 जनवरी, 1989 तक और न्यायामूर्ति श्री आर. एस. सरकारिया 19 जनवरी, 1989 से 24 जुलाई, 1995 तक और श्री पी. बी. सार्वेत 24 जुलाई, 1995 से अब तक परिषद् के अध्यक्ष रहे हैं। ये उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे। इन सभी ने परिषद् के दर्शन और कार्यों में गहन वचनवद्धता के साथ, परिषद् का मार्गदर्शन किया। परिषद् इनसे निर्देश पाकर, इनके ज्ञान और बुद्धि से अत्यधिक लाभान्वित हुई।

परिषद् की कार्यप्रणाली
परिषद् मूलतः अपनी जाँच समितियों के माध्यम से अपना कार्य करती है, तथा पत्रकारिता नियमों के उल्लंघन के लिए प्रेस के विरूद्ध अथवा प्राधिकारियों द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के लिए ब्रेक्स से प्राप्त शिकायतों पर निर्णय देती है। परिषद् में शिकायत दर्ज करने की नियत प्रक्रिया है। एक शिकायतकर्ता के लिये अनिवार्य है कि वह प्रतिवादी समाचारपत्र के संपादक को लिखकर उनका ध्यान प्रथमतः पत्रकारिता नीति के उल्लघंन अथवा लोकरूचि के विरूद्ध अपराध की ओर आकृ­ट करे। शिकायत किये गये मामले की परिषद् को कतरन भेजने के अतिरिक्त शिकायतकर्ता के लिये यह घो­ाणा करना आवश्यक है कि उन्होंने अपनी संपूर्ण जानकारी तथा विश्वास के अनुसार परिषद् के समक्ष संपूर्ण तथ्य प्रस्तुत कर दिये हैं तथा शिकायत में कथित किसी वि­ाय में किसी न्यायालय में कोई मामला लंबित नहीं है, और वह कि यदि परिषद् के सम्मुख जाँच लंबित होने के दौरान शिकायत में कथित कोई मामला न्यायालय की किसी कार्यवाही का वि­ाय बन जाता है तो वे तत्काल इसकी सूचना परिषद् को देंगे। इस घो­ाणा का कारण यह है कि अधिनियम की धारा 14, 3, को देखते हुए, परिषद् ऐसे किसी मामले में कार्यवाही नहीं कर सकती जोकि न्यायाधीन हो।

यदि अध्यक्ष महोदय को ऐसा लगता है कि जाँच के पर्याप्त आधार नहीं है, तो शिकायत खारिज कर, परिषद् को इसकी रिपोर्ट कर सकते हैं, अन्यथा समाचारपत्र के संपादक अथवा सम्बद्ध पत्रकार से कारण बताने के लिए कहा जाता है कि उनके विरूद्ध कार्यवाही न की जाये। संपादक अथवा पत्रकार से लिखित वक्तव्य तथा अन्य सम्बद्ध सामग्री प्राप्त होने पर, परिषद् का सचिवालय, जाँच समिति के सम्मुख मामला रखता है। जाँच समिति विस्तार से शिकायत की जाँच और परीक्षण करती है। यदि आवशक हो, तो यह दोनों पक्षों से अन्य विवरण अथवा दस्तावेजों की माँग करती है। पार्टियों को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने अथवा कानूनी पेशेवर सहित अपने प्राधिकृत प्रतिनिधियों के माध्यम से जाँच समिति के सम्मुख साक्ष्य देने का अवसर दिया जाता है। उपलब्ध तथ्यों और जाँच समिति के सम्मुख दये गये शपथपत्रों अथवा मौखिक साक्ष्य के आधार पर समिति अपनी उपलब्धियाँ और सिफारिशें तैयार करती है और परिषद् के सम्मुख रखती है जोकि उन्हें स्वीकार अथवा अस्वीकार कर सकती है । जहाँ परिषद् संतु­ट होती है कि एक समाचार पत्र अथवा समाचार एजेंसी ने पत्रकरिता नीति के स्तरों अथवा जनरूचि का उल्लंघन किया है अथवा एक संपादक अथवा श्रमजीवी पत्रकार ने व्यावसायिक कदाचार किया है, तो परिषद् जैसी स्थिति हो, समाचापत्र, समाचार एजेंसी, संपादक अथवा पत्रकार की परिनिन्दा, भर्त्सना कर सकती है अथवा उन्हें चेतावनी दे सकती है अथवा उनके आचरण का अनुमोदन कर सकती है। प्राधिकारियों के विरूद्ध प्रेस द्वारा दर्ज शिकायतों में, परिषद् को सरकार सहित किसी प्राधिकारी के आचरण के सबंध में ऐसी टिप्पणियां, जैसी वह उचित समझे, करने का अधिकार है। परिषद् के निर्णय अंतिम होते है और किसी विधि न्यायालय में उनपर आपत्ति नहीं की जा सकती। अतः इस प्रकार परिषद् को अत्यधिक नैतिक प्राधिकार है । यद्यपि इसके पास कानूनी रूप से देने के लिये दंडात्मक अधिकार नहीं है।

परिषद् द्वारा तैयार किये गये जाँच विनियम, अध्यक्ष महोदय को प्रेस परिषद् अधिनियम की परिधि में आने वाले किसी मामले के सबंध में मूल कार्यवाही करने अथवा किसी पार्टी को नोटिस जारी करने का अधिकार देते है। सामान्य जाँच के लिये शिकायतकर्ता द्वारा परिषद् के सम्मुख एक शिकायत दर्ज करनी होती है, इसके अलावा मूल कार्यवाही के लिए काफी हद तक वही प्रक्रिया होती है जैसाकि सामान्य जाँच में होती है। अपने कार्य करने के लिये अथवा अधिनियम के अंतर्गत जाँच करने के लिये, परिषद् निम्नलिखित मामलों के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत एक मुकदमें की छानबीन के लिये सिविल न्यायालय में निहित कुछ अधिकारों का इस्तेमाल करती है

(क) लोगों को सम्मन करने और उपस्थिति हेतु दबाव डालने तथा शपथ देकर उनका परीक्षण करने हेतु।

(ख) दस्तावेजों की खोज और निरीक्षण की आवश्यकता हेतु।

(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य की प्राप्ति हेतु।

(घ) किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से किसी सरकारी रिकार्ड अथवा इसकी प्रतियों की मांग हेतु।

(ड.) गवाहों अथवा दस्तावेजों के परीक्षण हेतु कमीशन जारी करना, और

(च) कोई अन्य मामला, जैसकि निर्दि­ट किया जाये।

परिषद् अपना कार्य करने के लिये पार्टियों से सहयोग की आशा करती है। कम से कम दो मामलों में, जहाँ परिषद् ने गौर किया कि पार्टियाँ (पक्ष) एकदम असहयोगी अथवा कठोर थीं, वहाँ परिषद् ने अत्याधिक संयम एवं अनिच्छा से, अपने समक्ष उपस्थित होने और अथवा रिकार्ड आदि देने हेतु उन्हें विवश करने के अधिनियम की धारा 15 के अंतर्गत अपने प्राधिकार का इस्तेमाल किया। चण्डीगढ. के कुछ पत्रकारों की मुख्यमंत्री और हरियाणा सरकार के विरूद्ध शिकायत में, परिषद् द्वारा भेजे गये नोटिस का जवाब देने में प्राधिकारियों द्वारा अस रहने पर, उन्हें प्राधिकारियों को परिषद् के बल प्रयोग संबंधी अधिकारों के इस्तेमाल के बारे में, पहले परिषद् को चेतावनी देनी पडी.। इसी प्रकार बी. जी. वर्गीय के दी हिन्दुस्तान टाइम्स के विरूद्ध प्रसिद्ध मामलें में, बिरलाज को श्री वर्गीय और श्री के. के. बिरला के बीच हुआ पूर्ण पत्राचार प्रदान करने का निर्देश दिया गया।

एक समाचारपत्र, जिसे परिषद् द्वारा तीन बार परिनिंदित किया गया था, के मामले में कुछ अवधि हेतु डाक की रियायती दरों अथवा अखबारी कागज के वितरण, विज्ञापनों, मान्यता के रूप में कुछ सुविधाएं और रियायतें न देने पर सम्बद्ध प्राधिकारियों से सिफारिश करने का परिषद् को अधिकार दिये जाने के लिए, परिषद् ने 1980 में अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव किया था।

प्राधिकारियों की ओर से परिषद् की सिफारिसों के स्वीकृति की अनिवार्य होने की मांग की गई। इसके अतिरिक्त परिषद् का विचार था कि, समाचारपत्रों के मामलों के समान प्रेस परिषद् अधिनियम 1978 की धारा 15 (4) के अंतर्गत, सरकार सहित किसी प्राधिकरण के आचरण का सम्मान करते हुए अपने किन्हीं निर्णयों अथवा रिपोर्टो में, ऐसी टिप्पणियां, जैसी वह उचित समझे, करने के परिषद् के अधिकार में ऐसे प्राधिकारियों को चेतावनी देने, उनकी भर्त्सना करने अथवा उन्हें परिनिंदित करने के अधिकार भी शामिल होना चाहिए और यह कि, इस संबंध में परिषद् की टिप्पण्यों को संसद के दोनों सदनों और अथवा सम्बद्ध राज्य के विधान के सम्मुख रखा जाना चाहिए। वर्­ष 1987 में, परिषद् ने मामले पर पुनर्विचार किया और विस्तृत विचार-विमर्श के पश्चात दंडात्मक अधिकार हेतु प्रस्ताव को वापिस लेने का निर्णय किया क्योंकि इस संबंध में पुनर्विचार किया गया कि वर्तमान परिस्थितियों में प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिये प्राधिकारियों द्वारा इन अधिकारों का दुरूपयोग किया जा सकता था।

तभी से, बार-बार, सुझाव संदर्भ परिषद् को दिये गये हैं कि चूककर्ता समाचारपत्रों/पत्रकारों को दंड देने के लिए परिषद् के पास दंडात्मक अधिकार होने चाहिए। इसके जवाब में परिषद् ने लगातार यही विचार किया है कि अधिनियम की विद्यमान योजना के अंतर्गत इसे दिये गये नैतिक अधिकार पर्याप्त हैं। अक्टूबर 1992 में नई दिल्ली में प्रेस परि­ादों के अंतर्रा­ट्रीय सम्मेलन में अपने उद्घाटन भा­षण में सूचना और प्रसारण केन्द्रीय मंत्री द्वारा यह सुझाव दोहराया गया, परंतु परिषद् नें निम्निलिखित कारणों से इसे सर्व सम्मति से अस्वीकार कर दिया -

यदि परिषद् को दंड देने/जुर्माना लगाने का अधिकार दे दिया जाता तो यह दंड देने के अधिकार के समान होता जोकि केवल तभी लागू होता है जब प्रेस द्वारा सरकार तथा इसके प्राधिकारियों के विरूद्ध शिकायतें की जाती हैं। सार्थक दंड देने का अधिकार कई मामलों को उठाता है जिनमें क, प्रमाण का दायित्व, ख, प्रमाण का स्तर, ग, कानूनी प्रतिनिधित्व का अधिकार और लागत, और घ, समीक्षा और अथवा अपील उपलब्ध होगी अथवा नहीं, शामिल हैं। इन मामलों में से सभी अथवा किसी एक का प्रभाव मूल आधार के विरोध में हो सकता है कि प्रेस परि­ादें शिकायतों की सुनवाई के लिये लोकतांत्रिक, प्रभावी और सस्ती सुविधा प्रदान करती हैं और यह कि परिणामी अनिवार्यता यह होगी कि इसके परिणामस्वरूप प्रेस परि­ादें औपचारिकता, लागत और पहुँच की जानी-मानी समस्याओं और न्यायिक अधिकार का प्रयोग करने वाले न्यायालय बन जायेंगी और समान रूप से विलंब होगा जिससे प्रेस परिषद् का मूल उद्देश्य विफल हो जायेगा ।

दिसंबर 1992 में, परिषद् को केन्द्रीय सरकार से एक पत्र प्राप्त हुआ जिसमें इस वि­ाय पर परिषद् के विचार माँगे गये कि क्या यह सुनिश्चत करने के लिए कि, सांप्रदायिक लेखों के संबंध में मार्गनिर्देशों के उल्लंघन हेतु प्रेस परिषद् द्वारा परिनिंदित समाचारपत्रों/पत्रिकाओं को सरकार से मिलने वाले प्रोत्साहन जैसे विज्ञापन आदि से वंचित रखा जा सकता है, कोई प्रक्रिया निर्दि­ट की जा सकती है, और क्या प्रेस परिषद् यह सुझाव देने की स्थिति में होगी कि जब यह एक समाचारपत्र/पत्रिका को मार्गनिर्देशों के उल्लंघन का दो­षी ठहराती है तब क्या कार्यवाही की जानी चाहिए। परिषद् ने जून 93 की अपनी बैठक में, परिषद् को दंडात्मक अधिकार दिये जाने के विरूद्ध विगत समय में इसके द्वारा लिये गये स्टैंड के प्रकाश में मामले पर विचार किया। मामले पर गहराई से विचार करने पर, परिषद् ने अनुभव किया कि इस समय परिषद् द्वारा जिस नैतिक अधिकार का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह काफी प्रभावी है और प्रेस को आत्म नियमन का मार्ग दिखाने में दंडात्मक अधिकारों की आवश्यकता नहीं है। हालांकि परिषद् ने निर्णय किया कि यदि एक समाचारपत्र तीन वर्­षों में किसी प्रकार के अनैतिक लेखन के लिये दो बार परिनिंदित किया जाता है, तब ऐसे निर्णयों की प्रतियाँ भारत सरकार के मंत्रिमंडल सचिव और सम्बद्ध राज्य सरकार के मुख्य सचिव, को सूचनार्थ और ऐसी कार्यवाही, जैसाकि वे अपने विवेक और मामले की परिस्थितियों में उचित समझे, हेतु भेजी जानी चाहिए। परिषद् ने निर्णय किया कि तीन वर्­षों की अवधि को दूसरी बार परिनिंदा की तारीख से उल्टे गिनते हुए पूर्ववर्ती तीन वर्­षों के रूप में लिया जायेगा।

आचार संहिता
प्रेस परिषद् अधिनियम, 1978 की धारा 13 2 ख्र द्वारा परिषद् को समाचार कर्मियों की संहायता तथा मार्गदर्शन हेतु उच्च व्ययवसायिक स्तरों के अनुरूप समाचारपत्रों; समाचारं एजेंसियों और पत्रकारों के लिये आचार संहिता बनाने का व्यादेश दिया गया है। ऐसी संहिता बनाना एक सक्रिय कार्य है जिसे समय और घटनाओं के साथ कदम से कदम मिलाना होगा।

निमार्ण संकेत करता है कि प्रेस परिषद् द्वारा मामलों के आधार पर अपने निर्णयों के जरिये संहिता तैयार की जाये। परिषद् द्वारा जनरूचि और पत्रकारिता नीति के उल्लंघन शीर्­ाक के अंतर्गत भारतीय विधि संस्थान के साथ मिलकर पहले वर्­ा 1984 में अपने निर्णयों / मार्गनिर्देशों के जरिये व्यापक सिद्धातों का संग्रह तैयार किया गया था। सिद्धांतों का यह संकलन परिषद् के निर्णयों अथवा अधिनिर्णयों अथवा इसके अथवा इसके द्वारा अथवा इसके अध्यक्ष द्वारा जारी मार्गनिर्देशों से चुना गया है। वर्­ा 1986 में, सरकार और इसके प्राधिकारियों के विरूद्ध शिकायतों अथवा मामलों, जोकि दूरगाती और महत्वपूर्ण प्रकृति के थे और जिसमें सरकार सहित किसी प्राधिकारी के आचरण का सम्मान करते हुए टिप्पणियाँ शामिल थीं, में निर्णयों और सिद्धांतों से सम्बद्ध प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लंघन शीर्­षक के अंतर्गत संकलन का दूसरा भाग प्रकाशित किया गया।

वर्­ष 1986 से संहिता निर्माण की त्वरित प्रकिया सहित शिकायतों की संस्थापना और प्रेस परिषद् द्वारा उनके निपटान में लगातार वृद्धि होती रही है। 1992 में परिषद् ने पत्रकारिता नीति निर्देशिका प्रस्तुत की जिसमें परिषद् द्वारा जारी मार्गनिर्देशों और निर्णयों से छाँटकर लिये गये पत्रकारिता नीति सिद्धांत हैं। चूँकि तब से परिषद् द्वारा प्रेस के अधिकारों और दायित्वों से सम्बद्ध कई अत्यधिक महत्वपूर्ण निर्णय दिये गये हैं, मार्गनिर्देशिका का 162 पृ­ठों का विस्तृत और व्यापक दूसरा संस्करण जारी किया जा चुका है। इसमें निजता के अधिकार की संकल्पना भी दी गई है और इस संबंध में तथा मागदिर्शन हेतु उच्च व्यावसायिक स्तरो के अनुरूप समाचार पत्रोंकिये जाने वाले मार्गनिर्देश भी विनिर्दि­ट किये गये है। प्रेस, सार्वजनिक कर्मचारियों और लोकप्रिय व्यक्तियों के मार्गदर्शन हेतु इसके कुछ पहलुओं में मानहानि कानून का भी सहयोग लिया गया है। परिषद् ने नगरपालिका समिति के सार्वजनिक पदाधिकारियों की कथित मानहानि के संबंध में महत्वपूर्ण अधिनिर्णय दिया कि प्रेस अथवा मीडिया के विरूद्ध नुकसान हेतु कार्यवाही का उपचार, सरकारी पदाधिकारियों को उनकी सरकारी ड्यूटी के निर्वाह से सम्बद्ध उनके कार्यों और आचरण के संबंध में साधारणतया उपलब्ध नहीं है, चाहे प्रकाशन ऐसे तथ्यों और वक्तव्यों पर आधारित हो जोकि सत्य न हो, जब तक कि पदाधिकारी यह स्थापित न करे कि प्रकाशन, सत्य का आदर और परवाह न करते हुए, किया गया था। ऐसे मामले में बचाव पक्ष् मीडिया अथवा प्रेस का सदस्य के लिये यह सिद्ध करना पर्याप्त होगा कि उन्होंने तथ्यों के समुचित सम्यापन के पश्चात कार्य किया, उनके लिये यह सिद्ध करना आवश्यक नहीं है कि उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह सत्य है। परंतु जहाँ यह सिद्ध होता है कि प्रकाशन दुर्भावना अथवा व्यक्त वैर से प्रवृत्त और झूठा है, वहाँ बचाव पक्ष के लिये कोई बचाव नहीं होगा और नुकसान हेतु उत्तरदायी होगा। हालाँकि एक सार्वजनिक पदाधिकारी कोउन मामलों में जोकि उनकी ड्यूटी के निर्वाह से सम्बंद्ध न हों, वही सुरक्षा मिलती है जैसाकि किसी अन्य नागरिक को मिलती है। हालाँकि न्यायापालिका, संसद और राज्य विधानमंडल इस नियम का अपवाद हैं क्योंकि पूर्ववर्ती इसकी अवमानमा हेतु दंड के अधिकार से सुरक्षित है और उत्तरवर्ती संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के अंतर्गत विशे­ााधिकारों से सुरक्षित है। परिषद् ने आगे दिया है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 अथवा कोई समान अधिनियमन अथवा उपबंध जिसे कानूनी शक्ति प्राप्त हो, प्रेस अथवा मीडिया पर नियंत्रण नहीं रख सकते। यह भी दिया गया है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जोकि प्रेस/मीडिया पर पूर्व नियंत्रण रखने अथवा वर्जित रखने का राज्य अथवा इसके अधिकारियों को अधिकार देता हो।

सार्वजनिक पदाधिकारी के निजता के दावे के संबंध में, परिषद् ने निर्दि­ट किया है कि यदि सार्वजनिक पदाधिकारी की निजता और उनके निजी आचरण, आदतों व्यक्तिगत कार्यों और चरित्र की विशेषताओं, जिनका टकराव अथवा संबंध उनकी शासकीय ड्यूटी के समुचित निर्वाह से हो, के बारे में जानने के जानता के अधिकार के मध्य टकराव हो, तो पूर्ववर्ती को उत्तरवर्ती के सामने झुकना चाहिए। हालाँकि, व्यक्तिगत निजता के मामलों में, जोकि उनकी शासकीय ड्यटी के निर्वाह से सम्बद्ध नहीं है, सार्वजनिक पदाधिकारी को वही सुरक्षा मिलती है जोकि किसी अन्य नागरिक को मिलती है।

यह मार्गनिर्देशिका कुल मिलाकर विधि संबंधी, नैतिक और सदाचार संबंधी समस्याओं जोकि प्रतिदिन समाचारपत्रों के मालिकों, पत्रकारों संपादकों का विरोध करती है, के माध्यम से सुरक्षा और जिम्मेवारी का मार्ग सुझाती है। मार्गनिर्देशिका अकाट्य सिद्धांतों का संकलन नहीं है बल्कि इसमें व्यापक सामान्य सिद्धांत हैं, जोकि प्रत्येक मामले की परिस्थिति को देखते हुए समुचित विवेक और अनुकूलन के साथ लागू किये जाते है, तो वे व्यावसायिक ईमानदारी के मार्ग सहित पत्रकारों को उनके व्यवसाय के संचालन को आत्म-संयमित करने में उनकी सहायता करेंगे। किसी भी तरह ये थकाउ नहीं है न ही इनका अभिप्राय सख्ती है जोकि प्रेस के स्वच्छंद कार्य में बाधा डाले।

बृहद-सिद्धांतों का विकास
पत्रकारिता के स्तरों और प्रेस की स्वतंत्रता दोनों के बारे में विभिन्न वि­षयों पर अपने निर्णय के सिलसिले में परिषद् द्वारा विकसित किये गये कुछ बृह्द सिद्धांतों को संक्षिप्त रूप में निम्नानुसार दिया गया है ।

पत्रकारिता स्तर
सांप्रदायिक लेख
संप्रदायों और व्यक्तियों पर अपमानजनक और उत्तेजक हमले नहीं किये जाने चाहिए। अफवाहों पर आधारित सांप्रदायिक घटनाओं पर कोई भी समाचार पत्रकारिता नीति का उल्लंघन होगा। इसी प्रकार महत्वपूर्ण चूक करते हुए विकृत रिपोर्टिग करना सही नहीं होगा। जहाँ शांतिपूर्ण और कानूनी तरीके से किसी संप्रदाय की सही शिकायत को दूर करने के इरादे से इस ओर ध्यानाकृ­ट करना प्रेस का वैध कार्य है, वहीं शिकायतों की खोज/अथवा इन्हें बढ़ा चढ़ाकर नहीं देना चाहिए विशे­ा स्प से उन शिकायतों को, जिनमें सांप्रदायिक वैमनस्य बढ़ाने की क्षमता हो।

स्वस्थ और शांतिपूर्ण वातावरण पैदा करने में यह अत्यधिक लाभदायक होगा यदि सनसनीखेज उत्तेजक और खतरनाक शीर्­ाकों को छोड़ दिया जाये और हिंसा अथवा बर्बरता के कार्यों की रिपोर्ट इस प्रकार से की जाये कि राज्य की कानून और व्यवस्था में लोगों का विश्वास कम न हो तथा इसके साथ-साथ इसमें ऐसे कार्यों को हतोत्साहित करने और उनकी निंदा करने का प्रभाव हो।

एक संप्रदाय को बदनाम करना गंभीर मामला है और इसे रा­ट्र-विरोधी गतिविधि बताना निंदा होगा और यह पत्रकारिता असंगति के समान है।

विगत गलतियों को दोहराने के विरूद्ध वर्तमान पीढ़ी को चेतावनी देने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को प्रकाशित करने में कोई असंगति नहीं है चाहे ये गलतियाँ एक विशेष संप्रदाय के लिये रूचिकर न हों।

धार्मिक संप्रदायों के बारे में वक्तव्य देने में कोई आपत्ति नहीं है यदि ये संयमित भा­षा में दिये जाते हैं और गलत अथवा बढ़ा-चढ़ाकर नहीं दिये जाते हैं।

पत्रकारिता का अनुचित प्रयोग
पत्रकारिता के अनुचित प्रयोग के संबंध में अपने निर्णयों के माध्यम से परिषद् द्वारा विकसित किये गये कुछ सिद्धांत हैं

विश्वास में लेकर दर्शाया गया अथवा विचार-विमर्श किया गया कोई मामला, स्रोत की सहमति लिये बिना प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए। यदि संपादक को ऐसा लगता है कि प्रकाशन जनहित में है, तब उसे उचित पाद-टिप्पणी में यह स्प­ट करना चाहिए कि सम्बद्ध वक्तव्य अथवा विचार-विमर्श प्रकाशित किया जा रहा था यद्यपि इसे अनाधिकारिक दिया गया था।

एक विज्ञापन जिसमें कुछ भी गैर-कानूनी अथवा अवैध हो अथवा जोकि सदरूचि अथवा पत्रकारिता नीति अथवा औचित्य के विपरीत हो, प्रकाशित नहीं किया जाना चाहिए।

समाचारपत्रों द्वारा उद्धरणों के संबंध में सटीकता बनाये रखने के लिये समुचित सावधानी बरती जानी चाहिए।

जहाँ एक समाचारपत्र पर पत्रकारिता नीति के उल्लंघन का आरोप लगाया जाता है, यह तर्क कि उसने प्रकाशन बंद कर दिया है, संपादक का बचाव नहीं होगा क्योंकि उनका आचरण ही शिकायत का वि­ाय है।

अश्लीलता और कुरूचि
रूचि का अर्थ संदर्भ के अनुसार अलग-अलग होता है। पत्रकार के लिये इसका अर्थ है कि जिसे शालीनता अथवा औचित्य के आधार पर उन्हें प्रकाशित नहीं करना चाहिए। जहाँ एक मामले में यौन संबंधी भावनाओं को भड़काने की प्रवृत्ति हो, पत्रिका में इसका प्रकाशन जनता, युवा अथवा वृद्ध के लिये अवांछनीय होगा। जनरूचि को बातावरण, परिस्थिति के साथ समसामयिक समाज में विद्यमान रूचि की धारणाओं के साथ परखा जाना चाहिए।

अश्लीलता का मूल परीक्षण यह है कि क्या मामला इतना अभद्र है कि यह चरित्र को बिगाड़ अथवा भ्र­ट कर सकता है। अन्य परीक्षण यह है कि क्या प्रयुक्त भा­षा और दृश्य का चित्रांकन गंदा, अश्लील, अरूचिकर अथवा कामुक समझा जा सकता है।

कोई भी कहानी अश्लील है अथवा नहीं, पत्रिका की साहित्यिक अथवा सांस्कृतिक प्रकृति और सामाजिक वि­ाय के स्तर वस्तु जैसे कारकों पर निर्भर करेंगी। एक पत्रिका अथवा सामाचारपत्र के वि­ायगत मामले की पिक्चर का इस प्रश्न से संबंध होता है कि क्या प्रकाशित किया गया मामला जनरूचि के स्तरों से कम है अथवा नहीं। पिक्चर जनरूचि से कम है अथवा नहीं, यह परखने के सम्बद्ध कारकों में से एक पत्रिका की प्रकृति अथवा उद्देश्य होगा- क्या यह कला, चित्रकला, दवा शोध, अथवा यौन सुधार से सम्बद्ध है।

प्रेस परिषद् ने मुद्रण मीडिया में अश्लील विज्ञापनों के बढ़ते हुए उदाहरणों पर चिंता व्यक्त की। यह सैंसरशिप के विरूद्ध थी परंतु प्रकाशन से पूर्व किसी अश्लील सामग्री की जाँच हेतु निवारण संबंधी उपायों का समर्थन किया गया। चूँकि ऐसे अधिकतर विज्ञापन, विज्ञापन एजेंसियों के जरिये दिये जाते हैं, परिषद् ने यह महसूस किया कि यह कार्य कठिन नहीं होगा यदि ये एजेंसियाँ ऐसे विज्ञापनों, जोकि एक औसतन नागरिक द्वारा परिवार में देखते हुए आपत्तिजनक समझा जाये, को तैयार और जारी करते समय अधिक सावधानी और समय बरतें। इन्होंने महसूस किया कि भारत की विज्ञापन एजेंसियों का संघ इन सभी विज्ञापन एजेंसियों के संरक्षक संगठन के रूप में मामले में अत्यधिक महत्वपूर्ण और सकारात्मक भूमिका निभा सकेगा और ऐसे विज्ञापन न देने में इनके सहयोग की माँग की जोकि जिनसे सीघ्र समय मेंदेश के सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों को नुकसान पहुँचने की संभावना हो। परिषद् ने समाचारपत्रों से भी अपील की कि यें विज्ञापन दाताओं से प्रत्यक्षतया अथवा विज्ञापन एजेंसियों से प्राप्त होने वाले विज्ञापनों की सावधानीपूर्वक जाँच करें और अश्लील तथा आपत्तिजनक समझे जाने वाले विज्ञापनों को अस्वीकार करके आत्म संयम बरतें। आक्षेपित प्रकाशन के विरूद्ध स्वयं द्वारा बनाये गये निम्नलिखित मार्गनिर्देशों को भी इन्होंने दोहराया।

समाचारपत्रों को ऐसे विज्ञापन नहीं देने चाहिए जोकि अश्लील हों अथवा महिला को नग्नावस्था में दर्शाते हुए पुरुषों की कामुकता को उत्तेजित करे जैसे कि वह स्वयं बिक्री की वस्तु हो।

एक तस्वीर अश्लील है अथवा नहीं, यह तीन परीक्षणों के संबंध में परखा जाना चाहिए, अभिधानतः

1, क्या यह अश्लील और आशालीन है,

2, क्या यह केवल अश्लील लेखन का अंश है,

3, क्या इस प्रकाशन का उद्देश्य केवलमात्र ऐसे लोगों में, जिनके बीच इसे परिचालित करने का इरादा है, तथा किशोरों की यौन भावनाओं को उत्तेजित करके पैसा कमाना है। दूसरे शब्दों में, क्या यह वाणिज्यिक लाभ के लिये हानिकारक शो­ाण है।

अन्य सम्बद्ध विचार योग्य वि­ाय यह है कि क्य तस्वीर पत्रिका के विषयगत मामले से सम्बद्ध है। कहने का तात्पर्य यह है कि क्या इसका प्रकाशन कला, चित्रकला, दवा, शोध अथवा यौन सुधार किसी सामाजिक अथवा लोक उद्देश्य के पूर्व चिंतन की पूर्ति करता है।

उत्तर का अधिकार
मूल सिद्धांत जोकि इस वि­ाय पर विभिन्न अधिनिर्णयों से निकलता है, पत्रों के प्रकाशन में संपादक के स्वनिर्णय का समर्थन करता है। हालाँकि, इनसे आशा की जाती है कि वे सार्वजनिक प्रकृति के मामले पर गलत वक्तव्य अथवा रिपोर्ट को स्वयं ठीक करेंगे। जानने के सार्वजनिक अधिकार के आधार पर आम पाठक वैध अधिकार का दावा कर सकता है। इसके अतिरिक्त, कोई व्यक्ति जिसका प्रकाशन में वि­ाय रूप से संदर्भ दिया गया हो, समाचारपत्र के स्तंभो में उत्तर के अधिकार के लिये स्वतः दावा कर सकता है। यदि परिषद् को यह अधिकार नहीं है कि वह एक समाचारपत्र को प्रत्युत्तर प्रकाशित करने के लिए बाध्य करे, यह समाचारपत्र को इसके विरूद्ध जाँच पड़ताल का विवरण प्रकाशित करने के निर्देश दे सकती है।

समाचारपत्र का पूर्व सत्यापन
प्रकाशन से पूर्व समाचार का सत्यापन आवश्यक है विशे­ा रूप से जब रिपोर्ट में अपमानजनक अथवा लिखित मानहानि संबंधी अधिस्वर हों अथवा इससे सांप्रदायिक तनाव हो सकता हो, न ही किन्हीं परिस्थितियों में भी लोगों के दूसरे वर्ग के विचारों के रूप में अफवाहों का प्रकाशन न्यायोचित ठहराया जा सकता है। जब भी किसी झूठे अथवा विकृत प्रकाशन पर संपादक का ध्यानाकृ­ट किया जाता है, तो उन्हें आवश्यक संशोधन करने चाहिए।

मानहानि-अपमानजनक लेख
भारतीय दंड संहिता की धारा 499 के दूसरे अपवाद के अंतर्गत एक सार्वजनिक कर्मचारी के सार्वजनिक कार्यों के निर्वाह में उनके आचरण का सम्मान करते हुए अथवा उनके चरित्र का सम्मान करते हुए, जहाँ तक उस आचरण में उनका चरित्र दिखाई देता है, कुछ अन्य नहीं, सदभावना मे राय अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है। तदनुसार परिषद् की राय है कि जनजीवन पर उचित टिप्पणीयों/को अनुचित नहीं कहा जा सकता परंतु यदि कोई तथ्यात्मक वक्तव्य दिये जाते हैं, तो वे सत्य और सही होने चाहिए।

यदि कोई मानहानिजनक तत्व जुड़ा होता है, तो नुकसान हेतु किसी भी प्रकार की सिविल कार्यवाही में अधिक सद्भावना बचाव नहीं होगा।

निजता का अधिकार बनाम लोकप्रिय व्यक्ति
भारतीय प्रेस परिषद् ने लोकप्रिय व्यक्तियों के निजता के अधिकार और सार्वजनिक हित तथा सार्वजनिक महत्व की सूचना तक पहुँचने के प्रेस के अधिकार के मध्य संतुलन प्राप्त करने के लिये मार्गनिर्देश बनाये हैं। रा­ट्रीय और अंतर्रा­ट्रीय स्तर तथा दिल्ली में अप्रैल 1998 में प्रेस परिषदों के विश्व संघ के सम्मेलन में हुई गरमा गरम बहस में बल दिया गया कि इस संबंध में तीन प्रतियोगी संवैधानिक मूल्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है, अर्थातः

क, एक व्यक्ति का निजता का अधिकार,

ख, प्रेस की स्वतंत्रता, और

ग, जनहित में लोकप्रिय व्यक्तियों के बारे में जानने का लोगों का अधिकार।

परिषद् ने इस मामले पर रिपोर्ट तैयार की है और निम्नानुसार मार्गनिर्देश बनाये है -

निजता का अधिकार अनुल्लघंनीय मानवाधिकार है। हालाँकि निजता की डिग्री स्थिति और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के लिये अलग-अलग होती है। सार्वजनिक व्यक्ति जोकि जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करते हैं, प्राइवेट व्यक्ति के समान निजता की वही डिग्री पाने की आशा नहीं कर सकते। उनके कार्य और आचरण जनहित में होता है। जनहित, जनता की रूचि से अलग रखा जा रहा है, यदि प्राइवेट भी किये जायें, तब भी प्रेस के माध्यम से लोगों की जानकारी में लाये जायें। इसके अनुरूप यह सुनिश्चित करना प्रेस की ड्यूटी है कि सार्वजनिक व्यक्ति के सार्वजनिक हित के ऐसे कार्यों और आचरण के बारे में सूचना सही तरीकों से प्राप्त की जाती है, समुचित रूप से सत्यापित करने और तत्पश्चात सटीक रिपोर्ट दी जाती है। लागों की निगाह से दूर किये कार्यों के बारे में सूचना प्राप्त करने के लिये, प्रेस से निगरानी वाले तरीके की आशा नहीं की जाती है। जहाँ से यह आशा की जाती है कि लोकप्रिय व्यक्तियों को तंग न करें, वहीं लोकप्रिय सार्वजनिक व्यक्तियों से भी यह आशा की जाती है कि वे अपनी कार्यप्रणाली में अधिक खुलापन लायें तथा जनता को उनके प्रतिनिधियों के कार्यों के बारें में सूचित करने की प्रेस की ड्युटी को पूरा करने में प्रेस को सहयोग दें।
प्रेस की स्वतंत्रता
प्रेस स्वतंत्रता को धमकियाँ
क समाचारपत्र अथवा वे लोग, जोकि संपादकीय के रूप में इससे जुड़े हुए हैं अथवा मैनेजमैंट में है, पर समाचारपत्र में अभिव्यक्त की गयी राय के लिये उन पर दबाव डालने अथवा उन्हें भयादोहित करने के इरादे से हमला प्रेस की स्वतंत्रता में घोर हस्तक्षेप है। मलयाला का मामला, पी.सी.आई.रिव्यू. जनवरी 1983 पृ062,

समाचारपत्रों को तथ्य प्रकाशित करने से रोकने के लिये अथवा विशे­ष आदेश का पालने करने के लिये बाध्य करने की प्रवृत्तियाँ चिंताजनक विषय हैं। मलयाला मनोरमा का मामला, पी.सी.आई वार्­षिक रिपोर्ट 1968 पृ0 38।

स्थानीय प्रशासन से आशा की जाती है कि वह पत्रकार द्वारा ड्यूटी निर्वाह करने में, उनकी बिना किसी दबाव के सहायता करे। ब्ल्टिज़ का मामला, पी.सी.आई. रिव्यू अप्रैल 1984, पृ0 30।

पुलिस प्राधिकारियों द्वारा एक समाचारपत्र के संपादक को उनके समाचार अथवा आलोचनात्मक लेखों के कारणडत्पीडि.त ाकरना अथवा झूठे मामलें में फँसाना, प्रेस की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के समान है। महाजाति का मामला, पी.सी.आई. अक्टूबर 1983 पृ0 55।

अनियंत्रित भीड़ द्वारा समाचारपत्र कार्यालयों में सामुहिक छापे प्रेस की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप है। पुलिस द्वारा समुचित एहतियाती सुरक्षात्मक कार्यवाही की जानी चाहिए। समाचारपत्र कार्यालयों के घेराव पर भी यही लागू होता है। प्रेस परिषद् द्वारा कर्नाटक सरकार के विरूद्ध मूल कार्यवाही, पी.सी.आई रिव्यू अप्रैल 1982 पृ0 36

पत्रकारों को डत्पीडित और परेशान करना प्रेस की स्वतृंता पर प्रत्यक्ष मामला है। मध्य प्रदेश लघु समाचारपत्र संघ का मालना पी.सी.आई. वार्­षिक रिपोर्ट 1972 पृ0 66।

समाचार कवर करते हुए एक प्रेस फोटोग्राफर से पुलिस द्वारा कैमरा ज़ब्त करना तथा पिल्म निकालना पत्रकार को अपनी ड्यूटी का निर्वाह करने से रोकने के समान है और इस मामले को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। सर्चलाईट का मामला, पी.सी.आई. वार्­िाक रिपोर्ट, 1972 पृ0 65।

एक पत्रकार के विरूद्ध साभिप्रेत मनगढ़ंत मामले दर्ज करना उनके कार्यों में हस्तक्षेप के समान होगा। मलयाला मनोरमा का मामला, पी.सी.आई. वार्­षिक रिपोर्ट, 1968 पृ038 और पी.सी.आई. वार्षिक रिपोर्ट 1967, पृ0 52-58।

रिपोर्टिंग के मामले में एक रिपोर्टर को किसी मंत्री द्वारा अपने आदेश का पालन करने के लिये धौंस देने का प्रयास प्रेस के प्रति मंत्री के आचरण के समुचित स्तरों को बनाये रखने के विपरात होगा दैनिक जन्मभूमि का मामला, पी.सी.आई. वार्­षिक रिपोर्ट 1980, पृ0 56।

एक समाचारपत्र संवाददाता द्वारा लिखे गये लेखों/समाचारों के कारण उनसे मान्यता पत्र और आवासीय सुविधायें वापिस लेना संवाददाता और प्रेस पर दबाव डालने के प्रयास के समान होगा। चंढ़ीगढ़ पत्रकार यूनियन का मामला, पी.सी.आई. वार्­िाक रिपोर्ट, 1974 पृ0 68।

प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867, जिला मजिस्ट्रेट को, भावी संपादकों को घो­ाणापत्र देने से इंकार करने से पूर्व, उनसे आश्वासन पत्र प्राप्त करने का अधिकार नहीं देता। उ.प्र.लघु एवं मझोले समाचारपत्र संपादक परिषद् का मामला, पी.सी.आई. रिव्यू, जन0 1983, पृ0 58।

प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 के अंतर्गत सामाचारपत्रों का घो­ाणापत्र इस आधार पर रद्द नहीं किया जा सकता कि सम्बद्ध समाचारपत्र पीत पत्रकारिता में लगे हुए थे। पीत पत्रकारिता से सम्बद्ध कोई भी शिकायत प्रेस परिषद् के सम्मुख दर्ज की जानी चाहिए। प्रेस परिषद् द्वारा मूल कार्यवाही, पी.सी.आई वार्षिक रिपोर्ट 1983, पृ0 37।

एक आलोचनात्मक लेख के आने की तारीख और मान्यता पत्र न देने में सामीप्य यह देखने के लिये महत्वपूर्ण कारक होंगे कि क्या मान्यता पत्र न देना उस लेख के कारण था। सरिता, मुक्ता आदि का मामला, पी.सी.आई. वार्षिक रिपोर्ट 1981, पृ0 60।

विज्ञापन और प्रेस स्वतंत्रता
संपादकीय नीति को प्रभावित कर लाभ उठाने के रूप में सरकार अथवा व्यक्तियों द्वारा विज्ञापन देना अथवा वापिस लेना एक धमकी तथा प्रेस की स्वतंत्रता को संकट डालने अर्थात इस संदर्भ में संपादक की स्वतंत्रता को संकट में डालने के समान है। सरकार के मामले में ऐसा विशे­ा रूप से होता है क्योंकि यह सार्वजनिक निधि न्यासी है, अतः भेदभाव किये बिना इसके उपयोग के लिये बाध्य है। ट्रिब्यून का मामला, पी.सी.आई. वार्­िाक रिपोर्ट, 1970, पृ0 45।

एक समाचारपत्र द्वारा अधिकार के मामले के रूप में सरकार सहित किसी पार्टी से विज्ञापनों का दावा नहीं किया जा सकता। सरकार वस्तुपरक कसौटी के आधार पर विज्ञापन देने की अपनी नीति बना सकती है। परंतु समाचारपत्र की संपादकीय नीति पर विचार किये बिना सार्वजिनक रूप से विवेचित सिद्धांतों के आधार पर यह किया जाना चाहिए। साप्ताहिक मुजाहिद के मामले, पी.सी.आई. रिव्यू जुलाई 1983 पृ0 44 और ट्रिब्यून, पी.सी.आई. वार्­षिक रिर्पोट 1970, पृ0 45।

यदि एक संपादक अपने समाचारपत्र से असम्बद्ध अनुचित व्यवहार अथवा कार्यवाही का दो­ाी है, तो उसके विरूद्ध व्यक्तिगत रूप से कार्यवाही की जा सकती है परंतु वह समाचारपत्र जिसका वह संपादक हो, को विज्ञापन देने से इंकार करना न्यायोचित नहीं होगा। यह एक समाचारपत्र के कर्मचारी अथवा इसके मालिक तक पर लागू होता है। सर्चलाइट और प्रदीप का मामला, पी.सी.आई वार्षिक रिपोर्ट, 1974, पृ0 11। हो सकता है कि एक संपादक, अथवा अन्य पत्रकारों के बाह्य कार्यकलाप, उस पर प्रकाश डालें जोकि वह समाचारपत्र के लिये लिखता है, तथा ऐसे लेखों के अनुचित होने पर समाचारपत्र के विरूद्ध कार्यवाही न्यायसंगत है। तथापि, यह अनुचित प्रकाशन और कर्मचारियों के कार्यकलापों जोकि समाचारपत्र से असम्बद्ध हों, के लिये है। पूर्वोक्त

अनुचितता और प्रेस स्वतंत्रता
टिप्पणी की एक विशे­ष रेखा स्वीकार करना के लिये पत्रकार को प्रलोभन देना और पत्रकार द्वारा ऐसे प्रलोभन को स्वीकार करना अनुचित है। सरकार द्वारा अनुचित प्रलोभन दिये जाने पर स्थिति बदतर हो जायेगी, क्योंकि तब मीडिया कानूनी रूप से दबाव डालने का शस्त्र वन जायेगा। (पूवोक्त)

एक पत्रकार के लिये ऐसा कार्य स्वीकार करना जोकि उनके व्यवसाय की नि­ठा और गौरव के विरूद्ध हो अथवा पत्रकार के रूप में उनके स्टेटस का शो­षण हो, अनुचित है। (पूर्वोक्त)

एक समाचारपत्र के संपादक को उनके समाचारपत्र में प्रकाशित पत्र की सूचना के स्त्रोत को प्रकट करने के लिये नहीं कहा जा सकता। अर्जुन बाण का मामला, पी.सी.आई रिव्यू, जुलाई 1983, पृ0 53।

एक पत्रकार को अपने निजी और गोपनीय सूचना का स्त्रोत प्रकट करने के लिये कहना, जनहित की घटनाओं पर रिपोर्ट करने के उनके दायित्व के उल्लंघन के समान है और प्रेस की स्वतंत्रता को धमकी देना है प्रेस संवाद् दाता का मामला, हिन्द समाचार, पी.सी.आई, वार्­षिक रिपोर्ट 1973 पृ0 27।

पुलिस द्वारा एक समाचारपत्र के संपादक को, पुलिस के कार्यों से सम्बद्ध समाचार के प्रकाशन के विरूद्ध आपने संवददाता को चेतावनी देने का निर्देश नहीं दिया जा सकता क्योंकि यह प्रेस के मौलिक अधिकार के विरूद्ध होगा। विश्व मानव, का मामला, पी.सी.आई. रिव्यू, अक्टूबर 1983, पृ0 52।

इस भावना के कारण कि किसी स्थिति की रिपोर्ट बढ़ा चढ़ाकर दी गई थी और एजेंसी पर दबाव डालने के लिये समाचार एजेंसी की टेलीपिंन्टर सेवा कें अंशदान को जानबूझकर बंद करना प्रेस की स्वतंत्रता को धमकी के समान होगी। संसद के पूर्व सदस्य का मामला, पी.सी.आई. वार्­षिक रिपोर्ट 1972 पृ0 7।

एक समाचारपत्र को समाचार प्रे­ाण के लिये निकालना और संपादकों के व्यावसायिक कर्त्तव्य के निर्वाह में कार्यकलापों के लिये उन्हें गिरफ्तार करना और समाचारपत्रों को कुछ ग्रुपों के कार्यों से सम्बद्ध कुछ भी प्रकाशित करने से रोकने के लिये सरकार द्वारा चेतावनी पत्र जारी वैध रूप से प्रेस की स्वतंत्रता को धमकी की आशंका को बढ़ावा दे सकता है। प्रेस परिषद् द्वारा मूल कार्यवाही, पी.सी.आई रिव्यू, अपैल 1983, पृ0 52।

मार्गनिर्देश और नीति निर्माण
परिषद् ने मार्गनिर्देश जारी किये है और प्रेस तथा लोगों से सम्बंद्ध विभिन्न मामलों पर नीति रूपरेखा की सिफारिश की। इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं भी गंभीर स्थिति पैदा हुई जिसमें प्रेस से संयम और सावधानी के साथ कार्य करने की आशा की गई वहाँ परिषद् के अध्यक्ष, वक्तव्यों के माध्यम से प्रेस का मार्गदर्शन करते रहे हैं। जब कभी भी सुनियोजित बृहत हमले किये गये, तब इन्होंने ऐसे वक्तव्यों के माध्यम से तीव्र प्रतिक्रिया भी की।

1969 में, परिषद् ने सांप्रदायिक संबंधों से सम्बद्ध मामलों पर रिपोर्टिंग और टिप्पणियाँ करने में नियमों और स्तरों को निर्दि­ट करते हुए 10-सूत्री मार्गनिर्देश जारी किये। सुविस्तार के बिना मार्गनिर्देशों में यह सूचीबद्ध और स्प­ट किया गया कि पत्रकारिता औचित्य और नीति के विरूद्ध क्या आपत्तिजनक होगा, अतः उससे बचना चाहिए। संलग्नक बी, ख,

पुनः 1990 में अयोध्या की घटनाओं को देखते हुए, परिषद् ने 1969 के मार्गनिर्देशों को दोहराते हुए, नये अनुभव के प्रकाश में अन्य 12 सूत्री मार्गनिर्देश जारी किये। परिषद् ने कहा कि इसमें रेखांकित सिद्धांत प्रशिक्षण की अवस्था से लेकर मीडिया के प्रत्येक स्तर पर अंतर्निवि­ट किये जाने चाहिए। इन सिद्धांतों संलग्नक बी-2 ने प्रेस और राज्य दोनों के लिये कुछ कार्य करने और कुछ कार्य न करने निर्दि­ट किये।

परिषद् ने पिछले वर्­षों में रा­ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि के विदेशी दौरे पर उनके साथ जाने के लिये पत्रकारों के चयन, विज्ञापनों अखबारी कागज़, मान्यता के नियमों जैसे कुछ वि­ायों के बारे में नीति रूपरेखा का निर्माण किया है।

जैसाकि पहले विवेचित किया गया है, परिषद् ने, अक्टूबर 1982 में अपनी बैठक में लिये गये निर्णय के पश्चात अपने अधिनिर्णयों के दो संकलन, मामलों के समान सैट के अंत में अधिनिर्णयों को रेखांकित करके सिद्धांत देते हुए पत्रकारिता नीति के उल्लंघन और प्रेस की स्वतंत्रता के उल्लंघन पर प्रकाशित किये।

कुछ महत्वपूर्ण दिये गये निर्णय और परिषद् द्वारा जारी मार्गदर्शी सिद्धांत
1966 में इसकी स्थापना से ही, परिषद् ने कई महत्वपूर्ण निर्णय दियें और मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये हैं जिनका देश में प्रेस पर काफी प्रभाव रहा है। निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण मामले हैं जिनमें ऐसे निर्णय दिये गये हैं। विस्तृत विवरण संलग्न-40 में दिया गया है।

सांप्रदायिक लेख
1, उड़ीसा सरकार बनाम देश, कलकत्ता साप्ताहिक 1968 वा., रि. 25-27, सं.-1

2, मैसूर सरकार बनाम ज़म ज़म, उर्दू साप्ताहिक, बंगलौर 1968-वा. रि. 56-57, सं.-2,

3, परिषद् ने निम्नलिखित समाचारपत्रों के विरूद्ध मूल-कार्यवाही आरंभ की और समुचित जाँच के पश्चात, मामलों को समाप्त करते हुए, इन्होंने अवलोकन किया कि ऐसे समय में प्रेस द्वारा संयम आवश्यक है जब सांप्रदायिक दंगो जैसे संवेदनशील मामलों पर संघर्­ा के परिणामस्वरूप देश तनाव वाली स्थिति से गुजर रहा हो - 1980 वा. रि. 131-146, सं0-3,

क, दैनिक जागरण

ख, असली भारत

ग, करंट

घ, फ्री प्रेस जर्नल

ड़, श्री वर्­षा

च, मलयाला मनोरमा

छ, नार्दर्न इंडिया पत्रिका

3-क, उपायुक्त, हजारीबाग बनाम राँची एक्सप्रेस वा0रि0 86-87

4, श्री शीपत सिंह मक्कासर बनाम राजस्थान पत्रिका 18वीं वा.रि. 231-232

5, श्री जिले सिंह चहल, महा सचिव अखिल भारतीय जाट महा सभा, रोहतक बनाम विश्व मेल ईवनिंग डेली, कोटा 18 वी. वा. रि. 234-235




मानहानि
1, गोआ, दमन और दियू सरकार बनाम ब्लेड 1969 वा. रि. 12-14, सं-4,

2, पी.के. बंसल बनाम सूर्य इंडिया वीं. वा.रि. 218-222, सं.-5,

3, मधु लिमये बनाम इंडियन एक्सप्रेस 13वीं वा. रि. 139-158, सं.-6,

4, हरकिशन सिंह सुरजीत बनाम इंडियन एक्सप्रेस 13 वीं वा. रि. 25-139 सं.-7

5, वसंत साठे बनाम दी इंडीपैन्डैन्ट 12 वीं वा. रि. 242-252, सं.-8

6, श्री एच. एन. कुमार, नगर पालिका समिति के प्रतिनिधि के रूप में नगर पार्­ाद मादिखेरी बनाम संपादक शक्ति कन्नड डेली, मादिखेरी वा. रि. 1994 सं0-9

7, श्री वटल नागराज, विधायक, कर्नाटक विधान सभा, बंगलौर बनाम लंकेश पत्रिका 111-112, 17वीं वा.रि.

8, श्रीमति फनाली सिंघल बनाम इंडीपैडैंट और दी हिन्दुस्तान टाइम्स 16 वीं वा. रि. पृ­ठ 123, 128, 129-132,




खोजी पत्रकारिता
1, आर. सी भार्गव, अध्यक्ष मारूति उद्योग लि0 बनाम दी स्टेट्समैन 15 वीं वा. रि. 130-142, सं.-10,




अश्लीलता और कुरूचि
1, दिल्ली प्रशासन बनाम कॉनपिडेन्श्ल एडवाइज़र 1996 वा. रि. 50-521, सं.-11,

2, श्री दिनेश भाई त्रिवेदी, सांसद राज्य सभा बनाम दी संडे स्टेट्समैन मिस्लनी 14 वीं वा. रि. 531-536, सं.-12,

निजता का अधिकार
1, सर सिरल्ला-सेंट मेरी ऑफ दी एन्जल्स फ्रान्सिसकन्स/फा0 प्लासिदो फौन्ज़िको बनाम दी इंडियन एक्सप्रेस, फ्री प्रेस जर्नल, टाइम्स ऑफ इंडिया और सामना 13वीं वां, रि. 92-110, सं.-13,

2, डा0 वसुधा धगंवर, कार्यकारी निदेशक, एम ए आर जी बनाम इंडिया टुडे वा.रि. 1993 सं0-14,

उत्तर का अधिकार
1, श्री टी. के. महादेवन बनाम दी इलस्ट्रेटिड वीकली ऑफ इंडिया 1981 वा.रि. 130-135, सं.-15,

2, डा0 बाल्टर फर्नानडीज बनाम सूर्य इंडिया वीं वा.रि. 233-235, सं0-16,

3, पी.के. बंसल बनाम सूर्य इंडिया 12 वीं रि. 218-222, सं.-5,

4, मधु लिमये/हरकिशन सिंह सुरजीत बनाम इंडियन एक्सप्रेस 13 वीं वा. रि. 39-158, सं.-6,




प्रकाशन पूर्व सत्यापन करने का अधिकार
1, असम सरकार बनाम दैनिक असम 1982 वा. रि. 82-85, सं.-17,

2, डी.एन. साइकिया, उपसचिव, असम सरकार बनाम दी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया और दी स्टेट्समैन 12 वीं. रि. 140-142, सं.-18,

3,1, गोआ सरकार, दमन और दियू बनाम ब्लेड 1969 वा.रि. पू. 12-14, सं.-4,

2, पी.के. बंसल बनाम सूर्य इंडिया 12वी. वा.रि. 218-222, सं0-5,

3, मधु लिमये बनाम इंडियन एक्सप्रेस 13वीं वा.रि. 139-158, सं.-6,

4, हरकिशन सिंह सुरजीत बनाम इंडियन एक्सप्रेस 13वीं वा.रि. 125-139, सं.-7,

5, बर्सेत साठे बनाम दी इंडीपैन्डैन्ट 12वीं वा.रि. 242-252, सं.-8,

4, दीपक वोहरा संड मेल पी.सी.आई.रिव्यू जुलाई 1994 59-71, सं.-19, 16वीं वा. रि.-133-144

7,क, प्रेस का अपने स्तंभ इस्तेमाल श्री अशेक मेहता, डी यू जे, आई यू जे

पी यू सी एल बनाम टाइम्स ऑफ इंडिया अगस्त 4-5, 1998



प्रेस स्वतंत्रता को धमकियाँ
1, मलयाला मनोरमा बनाम केरल सरकार पीसी आई रिव्यू, जनवरी 1983 पृ­ठ 62, सं.-20,

2, मलयाला मनोरमा बनाम विभिन्न राज्य सरकारें। पी सी आई वार्­िाक रिर्पोट 1968, पृ­ठ 38, सं.-21

3, बिल्टज़ बनाम देहरादून जिला प्रशासन। पी.सी.आई रिव्यू अप्रैल 1984, पृ0 30, सं0-22,

4, महाजाति बनाम असम सरकार पी. सी. आई रिव्यू अक्टूबर 1983, पृ­ट 55, सं.-23

5, कर्नाटक सरकार के विरूद्ध प्रेस परिषद् द्वारा मूल कार्यवाही पी.सी.आई. रिव्यू अप्रैल 1982 पृ­ठ 36, सं.-24,

6, मध्य प्रदेश लघु समाचारपत्र संघ बनाम नगर पालिका आयुक्त। पी.सी.आई. वार्­िाक रिपार्ट 1972, पृ­ठ 66, सं.-25,

7, सर्च लाइट बनाम राँची उपायुक्त। पी.सी.आई वार्­िाक रिपोर्ट 1972 पृ­ठ 65, सं.-26,

8, दैनिक जन्मभूमि बनाम असम सरकार पी.सी. आई वार्­िाक रिपोर्ट 1980, पृ­ठ 56, सं.-27,

9, चंढ़ीगढ़ पत्रकार संघ बनाम हरियाणा सरकार पी.सी.आई. वार्­िाक रिपोर्ट 1974, पृ­ठ 68, सं.-28,

10, उ.प्र. लघु एवं मझोले समाचारपत्र संपादक बनाम जिला मजिस्ट्रेट, हरदोई पी.सी.आई रिव्यू जनवरी 1983 पृ­ठ 58, सं.-29,

11, प्रेस परिषद् द्वारा मूल कार्यवाही वार्­िाक रिपोर्ट 1983, पृ­ठ 37, सं.-30,

12, सरिता मुक्ता मध्य प्रदेश सरकार पी.सी.आई वार्­िाक रिपोर्ट 1981, पृ­ठ 60, सं.-31,

13, मूल कार्यवाही-गुजरात समाचार पर हमले। वार्­िाक रिपोर्ट 1986, पृ­ठ 44, सं.-32,

14, श्री रमाशंकर प्रसाद, बिहार बनाम एस.पी.नालंदा 15 वीं वार्­िाक रिपोर्ट पृ­ठ 24-25,




विज्ञापन और प्रेस स्वतंत्रता
1. ट्रिब्यून बनाम हरियाणा सरकार पी.सी.आई. वार्­िाक रिपोर्ट 1979,पृ­ठ 45 सं. 33।

2. साप्ताहिक मुजाहिद बनाम असम सरकार पी. सी. आई. रिव्यू जुलाई 1983 पृ­ठ 44 सं. 34।

3. सर्चलाइट और प्रदीप बनाम बिहार सरकार पी. सी. आई. वार्­िाक रिपोर्ट 1974, पृ­ठ 11 सं. 35।

4. अमर उजाला बरेली और मेरठ संस्करण बनाम जिला प्रशासन उ. प्र. 15 वीं वा. रि. 66 67।




अनुचित व्यवहार और प्रेस स्वतंत्रता
1. अर्जुन बाण बनाम परगना अधिकारी, तहसील ब्रिस्वा, उ. प्र. पी. सी. आई. वार्­िाक रिपोर्ट 1973, पृ­ठ 40 सं. 36।

2. प्रेस संवाददाता हिन्द समाचार बनाम पंजाब सरकार, पी.सी.आई,वा.रि.1973,पृ27,सं37 अर्जुन बाण बनाम परगना अधिकारी, तहसील ब्रिस्वा, उ. प्र. पी. सी. आई. वार्­षिक रिपोर्ट 1973, पृ­ठ 27 सं. 37।

3. विश्व मानव बनाम एस. पी. बदायूँ पी. सी. रिव्यू, अक्टूबर 1983, पृ­ठ 52 सं. 38।

4. भूतपूर्व सांसद बनाम आंध्र प्रदेश सरकार पी. सी. आई. वार्­िाक रिपोर्ट 1972 पृ­ठ 7 सं. 39।

5. पी. रंजन की मातृभूमि के विरूद्ध शिकायत वा. रि. 1989 पृ­ठ 72 सं. 40।

6. अतुल माहेश्वरी, संपादक, अमर उजाला, हिन्दी दैनिक मेरठ बनाम ई. सी. आई. 17वां रि. पृ­ठ 45।

7. श्री रितेन्द्र माथुर पंचजन्य बनाम पी. आर. ओ. मं. प्र. विधान सभा जून 98।

इन अधिनिर्णयों के अध्ययन से यह पता चलता है कि परिषद, न केवल प्रेस थी स्वतंत्रता का संरक्षण करने बल्कि यह सुनिश्चत करने की, पत्रकारिता का स्तर बनाए रखा जाये और उसमें सुधार करने जैसे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के प्रयासों में भी निर्विवाद रूप से सपल रही है। जहाँ प्रेस, परिषद् के हस्तक्षेप के पश्चात प्राधिकारियों को, आमतौर पर, प्रेस पर अनुचित दबाव न डालते हुए देखा गया है वहीं प्रेस कर्मियों ने भी इस प्रकार की पत्रकारिता से स्वयं पर संयम रखा है जोकि उनसे, जिस स्तर की आशा की जाती है, को कम कर सकती थी। परिषद् का नैतिक प्रभाव व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है।

शिकायतों की संख्या 1979 में 80 से 1997 में 1075 तक की अत्याधिक वृद्धि, समाचारपत्रों पर नियंत्रण रखने के लिए परिषद् जैसी संस्था की आवश्यकता, महत्व और कार्यप्रणाली में मीडिया कर्मियों और जानता दोनों द्वारा अभिव्यिक्त किये गये विश्वास का पर्याप्त प्रमाण है।
विशे­ष जाँच
नियमित शिकायतों पर जाँच के अतिरिक्त परिषद् ने कई बार विशे­ा जाँच अधिकतर मूल कार्यवाही की है, परंतु कभी-कभी प्रेस से सम्बद्ध घटनाओं और मामलों की शिकायतों की जाँच भी की है।

देशर कथा, त्रिपुरा 1990 पर रिपोर्ट
गरतला, त्रिपुरा के एक बंगाली समाचारपत्र डेली देशर कथा के संपादक श्री गौतम दास द्वारा उनके समाचारपत्र बेचने वालों और कर्मचारियों पर कांग्रेस आई कार्यकर्ताओं द्वारा लगातार हिंसात्मक हमले किये जाने की शिकायत के पश्चात् प्रेस परिषद् ने घटनास्थल की समुचित जाँच हेतु एक विशे­ष समिति का गठन किया है। समिति ने अगरतला का दौरा किया और शिकायतकर्ता तथा त्रिपुरा सरकार के प्रतिनिधियों को सुना। इसके परिणामस्वरूप त्रिपुरा सरकार ने आश्वासन दिया कि वे ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिये सभी आवश्यक कदम उठायेंगे और देशर कथा को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करेंगे।

अयोध्या रिपोर्ट 1990
1990 में अयोध्या की घटनाओं पर तथा 1992 में अन्य पर विशे­ा जाँच की गई। इनकी रिपोर्ट क्रमशः 1991 और 1993 में सार्वजनिक की गई। प्रथम जाँच में, परिषद् ने चार उत्तर प्रदेश दैनिक जागरण, आज, स्वतंत्र भारत और स्वतंत्र चेतना को ऐसी रिपोर्टे, जिन्होंने पत्रकारिता नीति नियमों का घोर उल्लंघन किया, प्रकाशित करने का दो­ाी पाया। परिषद् ने नियमों का उल्लंघन करने पर इन समाचारपत्रों को परिनिंदित किया। परिषद् ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्थिति से निपटने में कई त्रुटियों और प्रेस के प्रति इसके व्यवहार को लेकर इसकी आलोचना भी की।

जागरण ने परिषद् के इस निर्णय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सम्मुख चुनौती दी, जोकि लंबित है।

इन्होंने प्राधिकारियों द्वारा परिस्थिति की माँग से अधिक दंडात्मक और निवारक कार्यवाही का आश्रय लेने पर चिंता व्यक्त की और अविद्यमान प्रेस आपत्तिजनक मामलों अधिनियम 1951 के उपबंधों के आह्वान और प्रेस एवं पुस्तक पुजीकरण अधिनियम 1867 के उपबंधो के दुरूपयोग पर शोक प्रकट किया।

अयोध्या रिपोर्ट 1993
अयोध्या में दिनांक 6-12-1992 को विवादास्पद मस्जिद गिराये जाने पर ऐसे पत्रकार/प्रेस मीडिया फोटोग्राफर/कैमरामैन जोकि दिनांक 6-12-92 को अयोध्या की घटनाओं और इसके आस-पास कवरेज कर रहे थे, पर कई हमले किये जाने की रिपोर्ट आयीं। चूँकि यह अत्यधिक महत्व और चिंता का मामला था, परिषद् के अध्यक्ष महोदय की अध्यक्षता में मामले की जाँच हेतु विशेष जाँच समिति का गठन किया गया। इससे पूर्व अध्यक्ष महोदय, सांप्रदायिक संबंधों पर टिप्पणियाँ प्रस्तुत करते हुए और घटनाओं की रिपोर्टिंग करते हुए प्रेस की ओर से संयम और नियंत्रण रखे जाने का आग्रह करते हुए पहले ही अपील जारी कर चुके थे। इसके साथ-साथ, उन्होंने पत्रकारों पर उस समय, जब वे अपने व्यावसायिक कर्त्तव्य का निर्वाह करते हुए घटनाओं को कवर करने की कोशिश कर रहे हों, हमलों की घटनाओं पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने प्राधिकारियों से भी यह सुनिश्चित करने की अपील की कि प्रेस को जनमहत्व के मामलों पर सूचना के प्रचार-प्रसार के लिये स्वत्रता और निर्भीकता से कार्य करने दिया जाये।

विशे­ष समिति ने दिनांक 14-12-92 के आदेश के जरिये अयोध्या, फैजाबाद, लखनउ और दिल्ली की अपनी बैठकों में मौखिक और लिखित साक्ष्य एकत्रित किये दिनांक 7-1-93 को पूर्ण परिषद् के सम्मुख अपनी रिपोर्ट दी। परिषद् द्वारा स्वीकार की गई रिपोट दिनांक 8-1-1993 को जारी की गई। संलग्नक-घ 3

पंजाब रिपोर्ट 1991
पंजाब में आतंकवाद के दौरान प्रेस और प्रेस कर्मियों का विरोध किये जाने और इन पर दबावों के संबंध में जाँच की गई। ओवरकमिंग फीयर डर पर काबू पाना शीर्षक के अंतर्गत विशे­ा समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए, परिषद् ने पंजाब प्रेस को, राज्य की स्थिति और घटनाओं के बारे में लोगों को सच्चाई और नि­पक्षता से सूचित करने और किसी बाह्य प्राधिकरण अथवा संगठन द्वारा बल अथवा भयादोहन के माध्यम से इसपर कोई संहिता अथवा नियम की माँग के विरोध में, अपना पूर्ण सहयोग दिया।

जम्मू व कश्मीर रिपोर्ट 1991
इसी प्रकार जम्मू व कश्मीर में प्रेस द्वारा सामना की जा रही समस्याओं पर विशे­ा जाँच की गई। जुलाई 1991 में इस समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए, परिषद् ने कहा कि कश्मीर में जटिल और कठिन स्थिति में सूचना और संचार के महत्व को सरकार अथवा स्वयं मीडिया द्वारा पर्याप्त रूप से महसूस नहीं किया गया। इन्होंने स्थिति के विभिन्न दृ­िटकोणों का प्रभावी उत्तर देने के लिये मापदंडों की श्रृंखला का सुझाव दिया। पूर्ण रिपोर्ट क्राइसिस एण्ड क्रैडिबिलिटी शीर्षक के अंतर्गत बाद में प्रकाशित की गई।

बिहार रिपोर्ट 1993
बिहार में प्रेस की स्वतंत्र कार्यप्रणाली के मार्ग में दबावों/बाधाओं और पत्रकारों पर हमलों की बढ़ती हुई घटनाओं पर रिपोर्ट जिसे परिषद् ने दिनांक 31 मार्च 1993 को स्वीकार किया, में प्रेस और प्राधिकारियों को अपने संबंध अधिक स्वस्थ संस्थापित करने का परामर्श दिया गया।

एड्स और मीडिया पर रिपोर्ट 1993
एड्स एंड दी मीडिया पर रिपोर्ट में मीडिया द्वारा कुछ कार्य करने और कुछ न करने निर्दि­ट किये गये और उन्हें परामर्श दिया गया कि छिटपुट समाचार से एड्स अवश्य ही प्रचार का लक्ष्य होना चाहिए। इसी समय, प्रेस को यह ध्यान रखना चाहिए कि जनहित जोकि व्यक्तिगत निजता के संरक्षण के अंतर्गत एक मामले के प्रकाशन को न्यायोचित ठहरा सकता है, वैध हित होना ा चाहिए न कि वि­ायासक्त अथवा विकृत जिज्ञासा।

रक्षा रिपोर्ट 1993
जून 1993 की एक अन्य रिपोर्ट जिसका शीर्­ाक पैन र्एेड स्नोर्ड कलम और तलवार था, में रक्षा से सम्बद्ध सूचना में अधिक खुलेपन के रवैये का समर्थन किया गया।

जम्बू व कश्मीर रिपोर्ट 1994
जम्मू व कश्मीर में उग्रवादी संगठनों से मीडिया को धमकियाँ पर परिषद् की नवीनतम रिपोर्ट ने उग्रवादी प्रचार का सामना करने के लिये सरकारी स्तर पर सूचना के तुरंत प्रसार की सिफारिश की है। रिपोर्ट ने मीडिया कर्मियों को, जोकि स्वतंत्र रूख अपनाने पर उग्रवादियों से धमकियों का सामना करते हैं, को संस्थानीय और क्षेत्रीय सुरक्षा प्रदान करने हेतु सरकार को भी परामर्श दिया है।

आदर्श विज्ञापन नीति 1994
वर्­ष 1994 में परिषद् ने संपूर्ण भारत में लागू करने हेतु समान विज्ञापन नीति का निर्माण किया। यह विज्ञापन हेतु प्राधिकारियों द्वारा नामिका में दर्ज करने के लिये समाचारपत्रों के अनुमोदन के लिए कसौटी प्रदान करती है।

मतदान पूर्व और पश्च मतदान सर्वेक्षण पर मार्गनिर्देश
भारतीय प्रेस परिषद् का, वांछनीयता अथवा अन्यथा मतदान पूर्व सर्वेक्षणों की उपलब्धियों के प्रकाशन और उनके द्वारा पूरा किये जाने वाले उद्देश्य के प्रश्न पर विचार करने के पश्चात विचार है कि समाचारपत्रों को चुनावों में हेरफेर और विकृतियों के लिये अपने मंच का इस्तेमाल किये जाने की मंजूरी नहीं देनी चाहिए और पक्षपाती पार्टियों द्वारा स्वयं के शो­ाण की स्वीकृति नहीं देनी चाहिए। अतः प्रे­ा परिषद् का परामर्श है कि हमारे जैसे आदर्श लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया की संगीन स्थिति को देखते हुए समाचारपत्रों को सजग रहना चाहिए कि उनके बहुमूल्य मंच का चुनाव के हेरफेर और विकृमियों के लिये इस्तेमाल न किया जाये। आज इस पर बल देना आवश्यक हो गया है क्योंकि कथित मतदान पूर्व सर्वेक्षणों जौसे गलत तरीको के इस्तेमाल के साथ-साथ जातीय, धार्मिक और नैतिक आधार पर जटिल और तीक्ष्ण प्रचार द्वारा अप्रत्याशित मतदाताओं के भ्रमित और गुमराह करने के लिये दिलचस्पी रखने वाले व्यक्तियों और समूहों द्वारा मुद्रण मीडिया के शो­ाण की माँग बढ़ती जा रही है। जहाँ कई मामलों में सांप्रदायिक और राजद्रोहात्मक प्रचार का पता लगाना कठिन नहीं होगा वहीं मतदान पूर्व सर्वेक्षण का पक्षपाती उपयोग, कभी-कभी जानबूझकर किया गया, को प्रकट करना उतना आसान नहीं है। अतः प्रेस परिषद् का सुझाव है कि जब कभी भी समाचारपत्र मतदान-पूर्व सर्वेक्षण प्रकाशित करते हैं, तो उन्हें उन संस्थाओं जिन्होंने ऐसे सर्वेक्षण किये हैं, व्यक्ति और संगठन जिन्होंने सर्वेक्षण करवाये हैं, चयन किये गये नमूने का आकार-प्रकार जाँच परिणाम हेतु नमूने के चयन का तरीका और जाँच परिणाम में त्रुटि की संभावित गुजाइश का संकेत देते हुए उन्हें सुस्प­ट रूप से प्रस्तावना में देने का ध्यान रखना चाहिए।

2, इसके अतिरिक्त मतदान की तारीखों के डावाडोल होने पर मीडीया को पहले ही हो चुके पश्च-मतदान सर्वेक्षण देते हुए देखा जाता है। इसमें उन मतदाताओं को प्रभावित करने की सम्भावना रहती है जहाँ मतदान अभी आरम्भ होना है। यह सुनिश्चित करने के लिये कि चुनाव प्रक्रिया को विशुद्ध रखा गया है और मतदाताओं के मस्ति­क को बाह्य कारकों द्वारा प्रभावित नहीं किया गया है, यह आवश्यक है कि मीडिया अंतिम मतदान तक पश्च मतदान सर्वेक्षण प्रकाशित न करे।

3, अतः प्रेस परिषद् प्रेस से पश्च-मतदान के बारे में निम्नलिखित मार्गनिर्देश का पालन करने का अनुरोध करती है।

मार्गनिर्देश
अंतिम मतदान समाप्त होने तक कोई भी समाचारपत्र, पश्च मतदान सर्वेक्षण, चाहे वे कितने भी सही हों, प्रकाशित नहीं करेगा।

घ, भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा वित्तीय पत्रकारों के लिये मार्गनिर्देशों का निर्माण

भारतीय प्रेस परिषद् ने रिपोर्टरों/वित्तीय पत्रकारों/समाचारपत्र प्रति­ठानों को परामर्श दिया है कि वे नकद अथवा किसी भी प्रकार के उपहार / अनुदान / रियायतें / सुविधाएँ आदि, जिनमें वित्तीय मामलों पर स्वतंत्र और नि­पक्ष रिपोर्टिंग के साथ समझौता करने की संभावना हो, न लें।

2, परिषद् ने अपनी रिपोर्ट में अवलोकन किया कि वित्तीय पत्रकार, पाठकों के मस्ति­क को काफी प्रभावित करते हैं, अतः एक कंपनी के स्टेट्स, भवि­य, वित्तीय सौदों का संतुलन और वस्तुपरक विचार देना उनकी जिम्मेदारी है। इन्होंने अवलोकन किया कि कुछ कंपनियों के समाचारपत्रों/पत्रिकाओं में अत्यधिक समाचार दिये जाते है क्योंकि उन्होंने उस मुद्रण मीडिया को विज्ञापन जारी किये हैं। कभी-कभी उन कंपनियों की प्रतिकूल रिपोर्टें प्रकाशित की जाती हैं जोकि समाचारपत्रों अथवा पत्रिकाओं को विज्ञापन नहीं देते हैं। पुनः जब किसी भी कारण से मीडिया किसी कंपनी/मैनेजमैंट से खुश न हो, तो कंपनी के नकारात्मक पहलुओं को उजागर किया जाता है, जबकि इसके विपरात, किन्ही नकारात्मक पहलुओं को प्रकाश मे नहीं लाया जाता। कुछ कंपनीयों को कुछ वित्तीय पत्रकारों से कंपनीयों के समर्थन में सकारात्मक रिपोर्टें प्राप्त करने के लिये, उन्हें उपहार, ऋण, छूट, प्राथमिक शेयर आदि देने र्के ौलए भी जाना जाता है। इस के साथ-साथ ऐसे गलत कार्यों के विरूद्व जनमत बनाने अथवा निवेशकों की शिक्षा के लिए कोई साधन नहीं है।

3, नियमित क्षेत्र में कदाचार पर चिंतित परिषद् ने , प्रतिनिधि वित्तीय संस्थानों और पत्रकारों के साथ विस्तृत विचार विमर्श करने के पश्चात वित्तीय पत्रकारों द्वारा अवलोकन हेतु निम्न वर्णित मार्गनिर्देशों की सिफारिश की है

1, वित्तीय पत्रकारों को उपहार, ऋण दौरे, छूट, प्राथमिक शेयर आदि जोकि उनकी पोजीशन से समझौता करते हों, अथवा समझौते की संभावना हो, को स्वीकार नहीं करना चाहिए।

2, किसी कंपनी के बारे में रिपोर्ट में प्रमुख रूप से यह उल्लेख होना चाहिए कि रिपोर्ट कंपनी के वित्तीय प्रायोजकों अथवा कंपनी द्वारा दी गयी सूचना पर आधारित है।

3, जब एक कंपनी की व्यवस्था का दौरा करने के लिये दौरे प्रायोजित किये जाते हैं, रिपोर्ट के लेखक, जिन्होंने दौरे का लाभ उठाया है, को यह अवश्य उल्लेख करना चाहिए कि सम्बद्ध कंपनी द्वारा दौरा प्रायोजित किया गया था और यह कि इन्होंने यथास्थिति आतिथ्य भी किया।

4. कंपनी से तथ्यों को सत्यापित किये बिना, कंपनी से सम्बन्ध कोई मामला प्रकाशित नही किया जाना चाहिए और ऐसी रिपोर्ट का “ाोत भी दर्शाया जाना चाहिए।

5. एक रिपोर्ट, जिसने किसी घोटाले का पर्दाफाश किया है अथवा किसी हितकर परियोजना को बढ़ावा देने के लिये रिपोर्ट प्रकाशित की है, को प्रोत्साहित और पुरस्कृत किया जाना चाहिए।

6. एक पत्रकार जिसकी एक कंपनी में शेयर होल्डिंगस, स्टाक होल्डिंगस आदि में वित्तीय रूचि है, को उस कंपनी पर रिपोर्ट नहीं करनी चाहिए।

7. पत्रकार को प्रकाशन हेतु पहले से प्राप्त सूचना को अपने सगे संबधियों और दोस्तों के लाभ के लिये इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

8. समाचारपत्र के मालिक, संपादक अथवा समाचापत्र से सम्बद्ध किसी भी व्यक्ति को अपने अन्य व्यावसायिक हित के संवर्धन के लिये समाचारपत्र के साथ अपने संबधों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।

9. जब कभी भी भारतीय विज्ञापन परिषद् द्वारा एक विशि­ट विज्ञापन एजेंसी अथवा विज्ञापनदाता पर अभ्यारोपण हो, तब वह समाचापत्र जिसमें विज्ञापन प्रकाशित किया गया था, को प्रमुख रूप से अभ्यारोपण का समाचार प्रकाशित चाहिए।

मीडिया में महिलाओं का चिंत्रांकन (1996)
महिलाओं की प्रगति में दृश्य और मुद्रण मीडिया की संभव भूमिका पर महारा­ट्र सरकार की सिफारिश को केन्द्रीय सरकार ने फरवरी 1995 में प्रेस परिषद् के सम्मुख, इसके विचारों के लिए भेजा। परिषद् की उपसमिति ने प्रमुख फिल्म/मीडिया कार्मियों और अन्य प्रसिद्ध लोगों से संपर्क किया। इसकी रिपोर्ट परिषद् द्वारा 8 जनवरी, 1996 को स्वीकार की गई। महिलाओं के लिए महारा­ट्र सरकार की नीति की सिफारिशें को पृ­ठांकित करते हुए तथा इनसे सहमत होते हुए, परिषद् ने 17 अधिक सिफारिशें की जिनमें से प्रमुख है (क) महिलाओं पर अत्याचार के समाचार प्रकाशित किये जाने चाहिए परंतु उन्हें सनसनीखेज बनाये। (ख) मीडिया के प्रयास बिना इस प्रकर होने चाहिए कि महिलाओं की सकारात्मक उपलब्धियों को उजागर किया जाये (ग) नैतिक आचार में आधुनिकता की ओर सिखाने की अश्लीलता और अभद्रता का मुकाबला करते हुए जांच की जानी चाहिए। (घ) भारतीय प्रेस परिषद् को, महिलाओं की अवमानना के आरोपो पर लायी जाने वाली शिकायतों पर विचार करने को अपनी ओर से प्राथमिकता दी जानी चाहिए और अन्य मार्गनिर्देश आदि बनाने चाहिए। नि­कर्­ातया, इस पर बल दिया गया कि समाज के सभ्नी वर्गो के साहचर्य के माध्यम से ही ऐसा नीति दस्तावेज लाभदायक बन जायेगा।

[संपादित करें] लघु और मझौले समाचारपत्रों की समस्यायें (1996)
देश में लघु और मझौले समाचारपत्रों की समस्याओं पर विचार करने के लिये परिषद् के सदस्यों की एक उप-समिति गठित की गयी थी। उपसमिति ने परिषद् को दी गयी अपनी रिपोर्ट में, लघु और मझौले समाचारपत्रों द्वारा सामना की जा रही समस्याओं को पहचानते हुए मामलों में कुछ ठोस दीघविधि / अल्पावधि सिफारिशें की (क) लघु और मझौले विकास को सुनिश्चित करने और इसे बढ़ावा देने के लिये लघु और मझौले समाचारपत्र के विकास निगम को विकास के रूप में गठित किया जाना चाहिए अथवा विकल्पता उन्हें सहकारी समिति बनाने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिए; (ख) सरकार को भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा बनायें गये मार्गनिर्देशों के अनुरूप समुचित विज्ञापन नीति बनानी चाहिए जिन्हें प्रत्येक तिमाही में विज्ञापन दिये जाते है; (घ) समाचारपत्रों के सभी विज्ञापन बिल, दृश्य प्रचार निदेशालय और सूचना एवं जन संपर्क निदेशालय द्वारा इन्हें प्राप्त करने के पर दिनों के भीतर निपटायें जाने चाहिए; (ड़) जहां मुद्रण कागज को अखबारी कागज की सीमा में लाया जाये, इसकी विशि­ट मात्रा लघु और मझौले समाचारपत्रों के लिए अलग से रखी जाये; (च) 75 फीसदी विज्ञापन जैसे बायोगैस चूल्हा का विज्ञापन, जिनका शहरों से कोई लेना-देना नहीं है, लघु और मझौले समाचारपत्रों को दिये जाने चाहिए। ये सिफारिशें जोकि कुल मिलाकर 22थी, प्रेस परिषद् द्वारा सर्वसम्मति से स्वीकार की गई।

समाचारपत्रों का बंद होना और उर्दू समाचारपत्रों की समस्यायें
पिछले कुछ वर्­षों में समाचारपत्रों के बंद होने में बढ़ोतरी के कारणों को आंकने के लिये परिषद् ने अध्ययन किया। परिषद् की समिति ने संपूर्ण देश में विभिन्न प्रदेशों में स्थिति का अध्ययन किया। इसी दौरान उर्दू समाचारपत्रों द्वारा सामना की जा रही, विशि­ट समस्याओं पर भी परिषद् का ध्यानाकृ­ट किया गया। (वा. रि. 1997-98) पी. सी. आई. रिव्यु अक्टूबर 97)

पत्रकारों पर अनुग्रह करना
उपहारों और अनुकंपा के माध्यम से मीडिया को जीतने के कथित प्रयासों पर 1998 मे जनगुहार ने, वर्ष 1988-95 से 10 वर्­षो के दौरान विभिन्न प्राधिकारियों द्वारा पत्रकारों (संपादकों और संपादकों के अलावा अन्य) को है, समाचापत्र एजेंसियों, समाचारपत्र प्रति­ठानों एवं मालिकों को सभी प्रकार के अनुग्रह/लाभ चाहे वे नकद हों अथवा रियायतों, उपहारों, भूमि, गृह सुविधाओं आदि के रूप में हो, के बारे में मामले का विस्तृत अध्ययन करने के लिये भारतीय प्रेस परिषद् को प्रेरित किया।

समिति ने अपनी रिपोर्ट में, जैसाकि परिषद् द्वारा दिनांक 22.01.98 को स्वीकार की गई, पत्रकारिता कार्य के लिये इन सुविधाओं से अतिरिक्त अनुचित अनुग्रह को सूचीबद्ध किया और टिप्पणी की कि अंतत: प्रैस को ही यह निर्णय लेना होगा कि सत्ताधारियों द्वारा दिये गये प्रलोभनों और लालच से दूर रहना चाहिए अथवा नहीं।
विधानों का परीक्षण
परिषद् ने प्रेस और पुस्तक पंजीकरण (संशोधन) बिल, 1988 के उपबंधो पर गहराई से विचार किया और निर्णय दिया कि यह इसके उद्देश्यों के विवरण से बाहर था। इन्होंने वि­षय से सम्बन्ध दूसरे प्रैस आयोग की सिफारिशों को समुचित रूप से लागू नहीं किया। यद्यपि कुछ उपबंध सकारात्मक प्रकृति के थे, कुछ अन्य शरारत से भरे हुए थे जिनके परिणामस्वरूप प्रेस की स्वतंत्रता को खतरा था। परिषद् ने बिल में कई मौलिक परिवर्तनों का सुझाव दिया। बाद में सरकार ने बिल वापिस ले लिया।

इसी प्रकार, परिषद् ने जम्मू कश्मीर विशे­षाधिकार (प्रेस) बिल, 1984 का मूल परीक्षण किया। इन्होंने बिल के उपबंधों पर दिनांक 29 सितम्बर, 1989 को प्रेस के विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधियों और राज्य मंत्रियों को भी सुना। इसके पश्चात् परिषद् ने निर्णय दिया कि जम्मू कश्मीर सरकार के पास पहले से ही विद्यमान राज्य और केन्द्रीय विधानों के रूप में पर्याप्त अधिकार थे जिनका बिल के अंतर्गत मांगे गयें नये अधिकारों के लिये प्रेस द्वारा घोर कदाचार के मामलों से निपटने के लिये प्रभावी रूप से इस्तेमाल किया जा सकता था।

परिषद् ने कहा कि पूर्व-सेंसरशिप और जब्ती के व्यापक अधिकारों सहित निवारक कानून, प्रेस को दबाकर, अफवाहों को खुली छूट दे देंगे और जम्मू व कश्मीर तथा बाकि देश में संपूर्ण मुद्रण और प्रसारण मीडिया की विश्वसनीयता को न­ट कर देंगे। परिषद् का विचार था कि पूर्व-सेंसरशिप सहज रूप से प्रेस की स्वतंत्रता के विरूद्ध थी। इन्होंने सिफारिश की कि बिल वापिस ले लिया जाये। इन्होंने राज्य में प्रेस सलाहकार परिषद् को फिर से लाने की सिफारिश की। बाद में राज्य विधानसभा में जम्मू कश्मीर सरकार द्वारा बिल वापिस ले लिया गया।

परिषद् ने कर्नाटक (प्रेस की स्वतंत्रता) बिल, 1988ण् और कर्नाटक विधानमंडल (अधिकार, विशे­ााधिकार और प्रतिरक्षा) बिल, 1988 का भी परीक्षण किया और प्रेस की स्वतंत्रता के बारे में उन्हें अधिक प्रभावी बनाने के लिये कई सुझाव दिये।

परिषद् ने शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 को निरस्त/संशोधित करने के बारे में ठोस और व्यापक सिफारिशें की। 1982 में पहली बार तथा 1990 में पुनः ऐसा किया गया। 1990 में परिषद् ने कहा कि विद्यमान अधिनियम पूर्ण रूप से निरस्त किया जाना चाहिए। अनुपयुक्त कानून में संशोधन करने से कोई लाभ नही है। शासकीय गुप्त / अधिनियम उदार सरकार के विरूद्ध है और अनुच्छेद 19 (1) (क) में दी गयी बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी के विरूद्ध हिंसात्मक भी है। एक नया विधान अधिनियम किया जाना चाहिए जोकि ृसूचना की स्वतंत्रता अधिनियमृ कहा जाये। ऐसा न किये जाने पर परिषद् ने प्रेस पर अधिनियम के कई उपबंधो के हानिकारक प्रभावों को हटाने के लिये कई संशोधनों का सुझाव दिया।

परिषद् ने प्रेस बिल 1974 में (श्री वी. एन. गाडगिल (सांसद) के) उत्तर के अधिकार पर चर्चा की और इस पर संघ सरकार द्वारा किये गये प्रेषण के जवाब में विचार किया। इन्होंने अपना विचार व्यक्त किया कि प्रस्तावित विधान आवश्यकता, औचित्य, जीवन क्षमता, कार्य क्षमता और इन सबसे अपनी उपर वैधता के दृ­िटकोण से सुभेद्य है। इसी कारण बिल वापिस ले लिया गया है।

विदेशियों द्वारा भारत में समाचारपत्रों के प्रकाशन पर केन्द्रीय सरकार के अन्य संदर्भ के जवाब में, परिषद् में 22 जून 1992 को अपनी राय दी कि यह इक्विटी और मैनेजमैंट भागीदारी से सम्बन्ध भारत में विदेशी समाचारपत्रों/ समाचार पत्रिकाओं के प्रकाशन का समर्थन नहीं करती, साथ ही जोड़ा कि ृवर्तमान प्रबंध पर 3 से 5 वर्­ाों के पश्चात् पुनः विचार अथवा पुनः समीक्षा की जा सकती थी। ृ 1955-56 में इस वि­ाय पर सरकार द्वारा लिये गये नीति निर्णय में किसी संशोधन को लेकर सिफारिशें करने के लिये श्री एन. के. पी. साल्वें की अध्यक्षता में मंत्रीमंडलीय उप समिति गठित की जाने के पश्चात््, मामला पुनः परिषद् के पास, उनकी टिप्पणियों के लिये भेजा गया। परिषद् में जून 1992 में दिये गये अपने विचारों, को दोहराया।
अध्ययन
प्रेस परिषद् 1978, प्रेस से सम्बंद्ध मामलों के बारे में अध्ययन करने का परिषद् को अधिकार देता है। परिषद् ने भारतीय विधि संस्थान के साथ मिलकर जहां तक के प्रेस से सम्बन्ध है अध्ययन किये है जैसे शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923, (सिफारिशें 1990 से न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971, संसदीय विशेषाधिकार और मानहानि कानून आदि। यह बृहत उपलब्धि है। ये प्रकाशन मीडिया कर्मियों की कार्यप्रणाली की सीमाओं और उनके अधिकारों का स्कोप समझने में, उनकी सहायता करते हैं।

सूचना के गोपनीय स्रोत की सुरक्षा
न्यायालय कार्यवाही की अवमानना में प्रेस अक्सर बता देती है कि इसे गोपनीय स्रोत दर्शानें के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिए। न्यायोचित ठहराने के लिये इस प्रकार के तर्क की सीमित आधार पर अनुमति दी गई है। सूचना के अपने स्रोतों को बनाये रखने के प्रेस के अधिकार को जनहित के अन्य पहलुओं के सामने संतुलित किया गया है। अंतिम टिप्पणी के द्वारा यह भी जोड़ा गया है कि प्रेस अपने गोपनीय स्रोतों को बनाये रखने अधिकार मांगने से , कहीं अधिक अक्सर विश्वास तोड़ने के अधिकार की मांग करती है। केवल यही उचित है कि प्रेस के खोजी और सत्य सत्यापन कार्यों के बारे में प्रेस को पूर्ण आधिपत्य दे दिये बिना प्रत्येक दावे को अन्य दावों के सामने संतुलित करना चाहिए। (देखें राजीव धवन द्वारा तैयार और भारतीय विधि संस्थान तथा भारतीय प्रेस परिषद् के संयुक्त1983 में भारतीय विधि संस्थान ने प्रश्नावली भेजी जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ एक पत्रकार द्वारा अपने व्यवसाय के उद्देश्य से विश्वास में प्राप्त किये गये सूचना के स्रोतों को दर्शाने के सबंध में प्रेस परिषद् के विचार मांगे गये। इस वि­षय पर विधि, आयोग के प्रश्न के जवाब में, प्रेस परिषद् ने निम्नानुसार अभिव्यक्त कियाः

परिषद् की राय में, प्रेस परिषद् अधिनियम 1978 की धारा 15 (2) में दिये गये उपबंध में वि­षय पर नवीनतम् प्रवृत्ति और सिद्धांत समावि­ट हैं। यद्यपि उपरोक्त अधिनियम के अतंर्गत यह केवल अधिनियम के अंतर्गत कार्यवाही तक ही सीमित है, इसकी कड़ी सिफारिश की गयी है कि इसे देश् के सामान्य कानून का हिस्सा बनाया जाये। ृ

यह बराबर महसूस किया गया कि यदि कोई अपवाद दिया जाता है, तो चरम सीमा वाले मामलों में जहां न्याय देने के हित में प्रकटीकरण कुल मिलाकर अपरिहार्य हो,ऐसा किया जाना चाहिए परन्तु प्रकटीकरण आदेश के अधिकार केवल सक्ष्म न्यायालय को ही प्रदान किये जाने चाहिए और यह भी कि पहली बार में पीठासीन अधिकारी को विश्वास में लेकर जोकि तब यदि संतु­ट हे कि मामले के निर्णय में यह उपयुक्त है, ऐसे कदम उठा सकत है जाकि इस साक्ष्य का हिस्सा बनाने के लिये आवश्यक हों।

भारतीय विधि न्यायालय में भारत सरकार को अपनी 93वीं रिपोर्ट दिनांक 10 अगस्त, 1983 को दी जिससे निम्नानुसार भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 132 निवेशित करने की सिफारिश की गईः

132 क कोई भी न्यायालय एक व्यक्ति से प्रकाशन, जिसके लिये वह जिम्मेवार है, जहां ऐसी सूचना उनके द्वारा स्प­ट समझौते अथवा अंतर्निहित तालमेल के आधार पर प्राप्त की गई है कि स्रोत गोपनीय रखा जायेगा, में दी गई सूचना का सूचना था स्रोत दर्शाने की अपेक्षा नहीं रखेगा।

स्प­टीकरणः- इस धारा में -

(क) प्रसारण का अर्थ है कोई भा­षण, लेख, अथवा कोई पत्र चाहे किसी भी रूप में हो, जोकि बड़े पैमाने पर जनता अथवा किसी जनसमूह को संबोधित हो।

(ख) स्रोत का अर्थ है व्यक्ति जिससे, अथवा साधन जिनके जरिये सूचना प्राप्त की गई है।

ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने विधि आयोग की सिफारिशें लागू करवाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये हैं। यही इस वि­षय पर प्रेस आयोग/ अथवा भारतीय प्रेस परिषद् की सम्बन्ध संयत सिफारिशों लागू करवाने के बारे में कहा जा सकता है।

परिषद् के अध्यक्ष महोदय द्वारा भा­षण और अन्य कार्यकलाप

परिषद् के उत्त्रोत्तर अध्यक्षों को विभिन्न संगठनों और संस्थानों द्वारा व्यवस्थित संगो­िठयों में अथवा भा­ाण देने के लिये आमंत्रित किया जाता रहा है जहां उन्होंने प्रेस द्वारा वस्तुपरक और तथ्यात्मक सही रिपोर्टिंग सुनिश्चित करने की आवश्यकता, प्रेस स्वतंत्रता की सुरक्षा और इसे मजबूत करने की आवश्यकता, और अलग-अलग संप्रदायों के बीच शांति और सौहार्द बनाये रखने में सहायता करने पर बल दिया है।

सभी पूर्ववर्ती अध्यक्ष ऐसे कार्यकलापों में भी भाग लेते रहे हैं और प्रेस स्वतंत्रता की सुरक्षा की आवश्यकता के बारे में जागरूकता पैदा करने, पत्रकारिता के उच्च नैतिक स्तरों को अनुसरण करने के साथ-साथ इस संबध से पत्रकारिता के छात्र छात्राएॅ प्रेस में प्रेस परिषद् की भूमिका और कार्य प्रणाली के बारे में भी बल देते रहे हैं।

विभिन्न विश्वविद्यालयों जोकि इस वि­ाय पर अनुदेश देते है / से पत्रकारिता के छात्र छात्राएँ प्रेस परिषद् के कार्यालय आते रहे है और अध्यक्ष महोदय परिषद् के उद्देश्यों, कार्यो, कार्यप्रणाली तथा प्रेस के अधिकारों ओर दायित्वों के बारे में उन्हें सम्बोधित करते रहे हैं। भारतीय प्रेस परिषद् वर्ड एसोसिएशन ऑफ प्रेस काउंसिल जोकि अंतर्रा­ट्रीय स्तर पर आत्म नियमन को बढ़ावा देता है, की सदस्य भी है। परिषद् के वर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री पी. बी. सावंत निकाय के वर्तमान अध्यक्ष हैं।

[संपादित करें] प्रेस और पंजीकरण अपील बोर्ड
प्रेस परिषद् अधिनियम 1978 की धारा 27, परिषद् को प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 की धारा 8 ग की उपधारा (1) के अंतर्गत बनाये गये प्रेस और पंजीकरण अपील बोर्ड को जिला मजिस्ट्रेट द्वारा समाचारपत्रों के घो­षणापत्रों को गैर कानूनी रूप से रद्द करने अथवा इनके अप्रमाणन के विरूद्ध अपीलों की सुनवाई का कार्य सौंपती है। बोर्ड में अध्यक्ष महोदय और भारतीय प्रेस परिषद् द्वारा अपने सदस्यों में से नामित एक अन्य सदस्य होता है। बोर्ड जब पहली बार 1979 में बनाया गया था, तब से ही इसने कई महत्वपूर्ण निर्णय दिये हैं।

विशि­ट व्यक्ति
परिषद् को प्रति­ष्ठित न्यायाधीशों, सुप्रसिद्ध संपादकों, मार्गदर्शी समाचारपत्र स्वामियों और प्रबंधकों, जाने माने श्रमजीवी पत्रकारों और पत्रकारिता आंदोलन के नेताओं तथा सुप्रसिद्ध साहित्यकारों, वकीलों और कई सुप्रसिद्ध व्यक्तियों में से कुछ जिन्होंने, 1998 तक, परिषद् के सदस्यों के रूप में सेवा की, वे हैं

संपादक
सर्वश्री फ्रैंक मोरेस, अक्षय कुमार जैन, बी. जी. वर्गीज, प्रेम भाटिया, अरूण शौरी, कुलदीप नायर, चौ0 रामा स्वामी, ए. एन. सिवारमन, डा0 धर्मवीर भारती, डा0 एन. के. त्रिखा, जिन्होंने संपादकों के अलावा श्रमजीवी पत्रकारों की श्रेणी में एक सेवा अवधि के लिए सेवा भी की, वी. एन. नारायणन, श्री रामू पटेल और नरला वेंकटेश्वर राव, श्री निखिल चक्रवती, श्री मैमन मैथ्यू संपादकों के अतिरिक्त श्रमजीवी पत्रकारः सर्वश्री दुर्गा दास जोकि एक सेवा अवधि के लिये मालिकों की श्रेणी में एक सदस्य भी थे, सैलेन चटर्जी, पृथ्विस चक्रवर्ती, के. विक्रम राव, एस. विश्वम, जी. एन. आहार्या, गोर किशोर घो­ा, ए. राघवन, पी. रमन और अरूण बागची, नितिश चक्रवर्ती, ब्रज भारद्वाज

स्वामी और प्रबंधक
सर्वश्री जी. नरसिम्हन, के. एम. मैथ्यू, सी. आर. इरानी, डा0 एन. बी. पारूलेकर, ए. जी. शीरे, ए. आर. भाट, नरेन्द्र तिवारी, राजमोहन गाँधी, यदुनाथ धारले, बासुदेव के चौधरी, एन. आर. चन्द्रन और जी. जी. मीरचंदानी नरेश मोहन, वी. बी. गुप्ता

साहित्यकार
डा0 उमा शंकर जोशी, डा0 वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, प्रो0 के. आर. श्री निवास अय्यंगर, प्रो0 यू. आर. अनन्थ मूर्थी, प्रो0 इन्दिरा नाथ चौधरी

वकील
श्री राम जेठमलानी, श्री रंजीत मोहंती, श्री पी. विश्वनाथ शेट्टी

शिक्षाविद
डा0 कुमारी अलु दस्तूर, डा0 कुमारी उ­ाा मेहता, डा0 श्रीमति माधुरी शाह, प्रो0 तपस मजूमदार, डा0 एम. वी. पायली, प्रो0 के. सच्चिदानंन्दन मूर्थि

संसद सदस्य
सर्वश्री एच. वी. कामथ, गंगा शरण सिन्हा, पिलू मोदी, रफीक जकारिया, एस, एन, द्विवेदी, सी. एल. चन्द्रकर, जार्ज फर्नांडीज़, एल. के. आडवाणी, एच. के. एल. भगत, एम. एस. गुरूपदस्वामी, वी. एन. गाडगिल, अरूण नेहरू, एडुअर्ड फ्लेरो, आर. के. करंजिया, श्रीमति गीता मुखर्जी, एम, सी. भंडारे, ब्रज मोहन मोहंती, डी. पी. यादव, एम. जे. अकबर, के. एल. शर्मा, पी. सी. चाको। इनमें से सर्वश्री एल. के. आडवाणी, वी. एन. गाडगिल और एच. के. एल. भगत को परिषद् के सदस्य होने से पूर्व अथवा इसके बाद में सूचना और प्रसारण मंत्रालय के केन्द्रीय मंत्री होने का सम्मान प्राप्त हुआ है। कई अन्य, अन्य पोर्टफोलियो के साथ केन्द्रीय मंत्री रह चुके हैं।

श्रीमती दीना अहमदुल्लाह सहित श्री सिवा राव, पत्रकार और सदस्य निर्वाचक विधानसभा और श्री के ईश्वर दत्त, पत्रकार और लेखक को प्रसिद्ध व्यक्तियों की श्रेणी में प्रथम परिषद् के लिए नामित किया गया।

आधुनिक युग

1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे। फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया। सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हमारे पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।
1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि। वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।
राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं - कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942), और सन्मार्ग (1943),जनवार्ता (१९७२) इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है। राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में "आज" (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि "आज" ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान् संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।
आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हमारी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है। वास्तव में पिछले 140 वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के "कलेर कथा" ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है। हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं। द्विवेदी युग के साहित्य को हम "सरस्वती" और "इंदु" में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है।

तीसरा चरण : बीसवीं शताब्दी के प्रथम बीस वर्ष

बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी। अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया। फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित "सरस्वती" (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान् साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए। शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए - जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 19012। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे। वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में "समालोचक" (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित "इतिहास" (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने "मिस्लेनी" () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे "भारतेंदु" (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। "सरस्वती" और "इंदु" दोनों हमारी साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं। "सरस्वती" के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और "इंदु" के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हमारी पत्रकारित को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।
परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हमारी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला। हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय "हिंदुस्तान" (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने "भारतोदय" नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा। वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् "भारतमित्र" ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे। हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम "अभ्युदय" (1905), "प्रताप" (1913), "कर्मयोगी", "हिंदी केसरी" (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं। प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से "कलकत्ता समाचार", "स्वतंत्र" और "विश्वमित्र" प्रकाशित हुए, बंबई से "वेंकटेश्वर समाचार" ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से "विजय" निकला। 1921 में काशी से "आज" और कानपुर से "वर्तमान" प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।

भारतेंदु के बाद

भारतेंदु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्म, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी "प्रेमधन" (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891), और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में "नागरीप्रचारिणी पत्रिका" का प्रकाशन आरंभ होता है। इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में "सरस्वती" और "सुदर्शन" के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।
इन 25 वर्षों में हमारी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेंदु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही "बालाबोधिनी" (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया। कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं - "भारतभगिनी" (हरदेवी, 1888), "सुगृहिणी" (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं। आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हमारी गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।
आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से "हिंदी प्रदीप" (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेंदु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894), और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं। इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके। बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग : भारतेंदु युग

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेंदु का "हरिश्चंद्र मैगजीन" था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त "सरस्वती"। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे। मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परंतु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में "विचारपत्र" ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था। वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।
उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी। "कविवचनसुधा" (1867), "हरिश्चंद्र मैगजीन" (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका" (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिक, 1874) के रूप में भारतेंदु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था। उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और "कविवचनसुधा" के "पंच" पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेंदु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेंदु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। "हिंदी प्रदीप", "भारतजीवन" आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।

हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण

1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेंदु ने "हरिश्चंद्र मैगजीन" की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र "हरिश्चंद्र चंद्रिका" नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेंदु का "कविवचन सुधा" पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में "हरिश्चंद्र मैगजीन" से ही हुआ। इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। "उदंत मार्तंड" के बाद प्रमुख पत्र हैं :
बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदंड मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872), और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था "समाचार सुधावर्षण" जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था, और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में "बनारस अखबार" (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक "सुधाकर" और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से "प्रजाहितैषी" का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का "बनारस अखबार" उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष कवि वचनसुधा का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेंदु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि "हरिश्चंद्र मैगजीन" के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।

भारतीय भाषाओं में पत्रकारिता का आरम्भ और हिन्दी पत्रकारिता

भारतवर्ष में आधुनिक ढंग की पत्रकारिता का जन्म अठारहवीं शताब्दी के चतुर्थ चरण में कलकत्ता, बंबई और मद्रास में हुआ। 1780 ई. में प्रकाशित हिके (Hickey) का "कलकत्ता गज़ट" कदाचित् इस ओर पहला प्रयत्न था। हिंदी के पहले पत्र उदंत मार्तण्ड (1826) के प्रकाशित होने तक इन नगरों की ऐंग्लोइंडियन अंग्रेजी पत्रकारिता काफी विकसित हो गई थी।
इन अंतिम वर्षों में फारसी भाषा में भी पत्रकारिता का जन्म हो चुका था। 18वीं शताब्दी के फारसी पत्र कदाचित् हस्तलिखित पत्र थे। 1801 में हिंदुस्थान इंटेलिजेंस ओरिऐंटल ऐंथॉलॉजी (Hindusthan Intelligence Oriental Anthology) नाम का जो संकलन प्रकाशित हुआ उसमें उत्तर भारत के कितने ही "अखबारों" के उद्धरण थे। 1810 में मौलवी इकराम अली ने कलकत्ता से लीथो पत्र "हिंदोस्तानी" प्रकाशित करना आरंभ किया। 1816 में गंगाकिशोर भट्टाचार्य ने "बंगाल गजट" का प्रवर्तन किया। यह पहला बंगला पत्र था। बाद में श्रीरामपुर के पादरियों ने प्रसिद्ध प्रचारपत्र "समाचार दर्पण" को (27 मई, 1818) जन्म दिया। इन प्रारंभिक पत्रों के बाद 1823 में हमें बँगला भाषा के समाचारचंद्रिका और "संवाद कौमुदी", फारसी उर्दू के "जामे जहाँनुमा" और "शमसुल अखबार" तथा गुजराती के "मुंबई समाचार" के दर्शन होते हैं।
यह स्पष्ट है कि हिंदी पत्रकारिता बहुत बाद की चीज नहीं है। दिल्ली का "उर्दू अखबार" (1833) और मराठी का "दिग्दर्शन" (1837) हिंदी के पहले पत्र "उदंत मार्तंड" (1826) के बाद ही आए। "उदंत मार्तंड" के संपादक पंडित जुगलकिशोर थे। यह साप्ताहिक पत्र था। पत्र की भाषा पछाँही हिंदी रहती थी, जिसे पत्र के संपादकों ने "मध्यदेशीय भाषा" कहा है। यह पत्र 1827 में बंद हो गया। उन दिनों सरकारी सहायता के बिना किसी भी पत्र का चलना असंभव था। कंपनी सरकार ने मिशनरियों के पत्र को डाक आदि की सुविधा दे रखी थी, परंतु चेष्टा करने पर भी "उदंत मार्तंड" को यह सुविधा प्राप्त नहीं हो सकी।

हिन्दी पत्रकारिता

हिन्दी पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता की कहानी है। हिन्दी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने महत् दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। कदाचित् इसलिए विदेशी सरकार की दमन-नीति का उन्हें शिकार होना पड़ा था, उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी थी। उन्नीसवीं शताब्दी में हिन्दी गद्य-निर्माण की चेष्ठा और हिन्दी-प्रचार आन्दोलन अत्यन्त प्रतिकूल परिस्थितियों में भयंकर कठिनाइयों का सामना करते हुए भी कितना तेज और पुष्ट था इसका साक्ष्य ‘भारतमित्र’ (सन् 1878 ई, में) ‘सार सुधानिधि’ (सन् 1879 ई.) और ‘उचितवक्ता’ (सन् 1880 ई.) के जीर्ण पष्ठों पर मुखर है।
हिन्दी पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता के दबदबे को खत्म कर दिया है। पहले देश-विदेश में अंग्रेजी पत्रकारिता का दबदबा था लेकिन आज हिन्दी भाषा का परचम चंहुदिश फैल रहा है।