रविवार, 21 फ़रवरी 2010

उसमें गहराई समंदर की कहाँ

विलास पंडित 'मुसाफ़िर'वो यक़ीनन दर्द अपना पी गयाजो परिन्दा प्यासा रहके जी गया झाँकता था जब बदन मिलती थी भीखक्यूँ मेरा दामन कोई कर सी गया जाने कितने पेट भर जाते मगरबच गया खाना वो सब बासी गयाउसमें गहराई समंदर की कहाँजो मुझे दरिया समझकर पी गयाभौंकने वाले सभी चुप हो गएजब मोहल्ले से मेरे हाथी गयाचहचहाकर सारे पंछी उड़ गएवार जब सैयाद का खाली गयालौटकर बस्ती में फिर आया नहीं बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया

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