रविवार, 21 फ़रवरी 2010

ग़ालिब की ग़ज़लें

1. शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकलाक़ैस तस्वीर के परदे में भी उअरयाँ निकलाज़ख्म ने दाद न दी तंगि-ए-दिल की यारब तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पुरअफ़शाँ निकला
Aziz Ansari
WDबू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग-ए-मेहफ़िल जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला दिल में फिर गिरये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब'आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला 2. दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआमैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआजमअ करते हो क्यों रक़ीबों को इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
थी खबर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुरज़े देखने हम भी गए थे, पर तमाशा न हुआ
है खबर गर्म उनके अने कीआज ही घर में बोरिया न हुआक्या वो नमरूद की खुदाई थी बन्दगी में मेरा भला न हुआ हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँतू ही जब खंजर आज़माँ न हुआकितने शीरीं हैं तेरे लब के रक़ीब गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ जान दी, दी हुई उसी की थीहक़ तो ये है कि हक़ अदा न हुआथी खबर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुरज़े देखने हम भी गए थे, प तमाशा न हुआ 3. ये न थी हमारी क़िस्मत, कि विसाल-ए-यार होताअगर और जीते रहते, यही इंतिज़ार होतातेरे वादे पे जिए हम, तो ये जान झूठ जाना कि खुशी से मर न जाते, अगर ऐतबार होतातेरी नाज़ुकी से जाना, कि बंधा था एह्द-ए-बूदा कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तवार होताकोई मेरे दिल से पूछे, तेरे तीर-ए-नीम कश को ये खलिश अहा से होती, जो जिगर के पार होताये अहाँ की दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह कोई चारा साज़ होता कोई ग़म गुसार होतारग-ए-संग से टपकता, वो लहू कि फिर न थमताजिसे ग़म समझ रहे हो, ये अगर शरार होताग़म अगरचे जाँ गुसल है, प बचें कहाँ कि दिल हैग़म-ए-इश्क़ गर होता, ग़म-ए-रोज़गार होताकहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होताहुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरियान कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होताउसे कौन देख सकता, कि यगाना है वो यकताजो दुई की बू भी होती, यो कहीं दो-चार होताये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब' तुझे हम वली समझते जो न बादा ख्वार

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